श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन  22-04-2018 दिन- रविवार
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युग पुरुष का जन्म जयन्ती समारोह✒🍃
श्री मुनिसुव्रतनाथ दिगम्बर जैन मंदिर, (त्रिकाल चौबीशी) आर के पुरम ,कोटा में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज विराजमान है। आज स्वेतपिच्छाचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज का 94 वां जन्म जयंती महोत्सव मुनिश्री के सान्निध्य में मनाया गया।  जिसमें सर्वप्रथम चित्र अनावरण, दीप प्रज्वलन, शास्त्र भेंट, मुनिश्री के पाद प्रक्षालन ,मंगलाचरण के साथ सभा प्रारम्भ हुई।
मुनिश्री ने आचार्य श्री विद्यानन्द जी मुनिराज के 94 वें जन्म  जयंती महोत्सव के उपलक्ष्य में उनके जीवन गाथा पर प्रकाश डालते हुए बताया कि आज के दिन 22 अप्रेल 1925 में आचार्य श्री जी का कर्नाटक प्रान्त में जन्म हुआ और जन्म के साथ उनका नाम 'सुरेंद्र उपाध्येय' नाम रखा गया । 21 वर्ष की अवस्था मे उन्होंने क्षुल्लक दीक्षा ली।उस समय उन्हें आचार्य महावीरकीर्ति मुनिराज का सान्निध्य मिला तब उन्होंने वैराग्य धारण कर आचार्य श्री से क्षुल्लक दीक्षा धारण की वो 15 अप्रेल 1946 का वो दिन था। दीक्षा ग्रहण करने के बाद उनका नाम पार्षवकीर्ति रखा गया था।उन्हें लोगो के अनुभवों को लेना पसंद था एक दिन जब वे एक क्षुल्लक जी के पास गए तो उन्होंने कहा आप अपने जीवन का अनुभव बताइये तब उन क्षुल्लक जी ने कहा- मेरे जीवन का अनुभव यही है कि तुम-" 2 रोटी कहकर पचाते हो बस 2 बाते खाकर पचाना सीख जाना" ।आचार्य श्री का व्यक्तित्व इतना मधुर इतना सरल है वे सदा समता भाव में रहते है ।आचार्य श्री ने लगभग 14 साल आचार्य शांतिसागर जी कस सान्निध्य प्राप्त किया , वो अध्ययन प्रिय है। मुझें भी आचार्य श्री का सान्निध्य मिला उन्होंने मुझे बताया कि श्रावको के साथ ज्यादा समय मत दो ज्यादा समय में अपने गृहस्थी की बाते करते है ।उन्होंने मुझे सिखाया की ज्ञानी हो तो अपने पास बैठालो लेकिन ग्रहथि हो तो नहीं।
मुनिश्री ने बताया कि आचार्य श्री जी अपनी क्षुल्लक अवस्था मे आचार्य देशभूषण जी के पास जाकर आग्रह किया और उन्होंने क्षुल्लक पार्षवकीर्ति जी को सन 1963 में मुनि दीक्षा प्रदान की।17 नम्बवर 1974 में आचार्य देशभूषण जी के कर कमलों से आचार्य श्री को उपाध्याय पद दिया गया ।फिर 17 नवम्बर 1978 को ऐलाचार्य पद दिया गया। 6 नवम्बर 1979 को चतुर्विध संग द्वारा उन्हें सिद्धान्त चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान की गई। और अभी कुछ ही वर्ष पहले उन्हें स्वेतपिच्छाचार्य की उपाधि प्रदान की गई। आचार्य श्री कहते है कि" राजनीति में धर्म हो लेकिन धर्म मे राजनीति नही" होना चाहिए।
मुनिश्री न बताया आचार्य श्री ने अपने जीवन मे कुछ सूत्र बताये उन्होंने कहा -"मत ठुकराओ, गले लगाओ ,धर्म सिखाओ" ।किसी भी व्यक्ति को कभी मत ठुकराओ उसे गले लगाओ और धर्म सिखाओ। उन्होंने अपने अनुभवों से मुझे कहा कि -" कभी भी बांस जैसे नीरस मत बनो ,बांस लम्बा होता नीरस होता कभी मत बनना ; बनना है तो गन्ने जैसे बनने का प्रयास करे, गन्ना छोटा होता है लेकिन सरस् होता है"। आचार्य श्री की देन हमारे समाज के लिए उन्होंने 1981 में जब विश्व स्तर पर बाहुबली भगवान का मस्तकाभिषेक करवाया। उसके पहले इतने बड़े स्तर पर नही होता था। आचार्य श्री ने ही सर्वप्रथम अष्टापद की वंदना की वहाँ का रास्ता खोला सभी के लिए। वे जब भी बात करते है ज्ञान की ही बात करते है जो भी उनके पास जाता है ज्ञान लेकर ही आता है। मैंने उनके सान्निध्य में सारे शास्त्रो का अध्ययन किया ।मैं यही विनयांजलि समर्पित करता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि मुझे उनका सान्निध्य ऐसे ही प्राप्त हो ,हमारी समाज को उनका सान्निध्य प्राप्त हो और देश ऐसे ही उन्नति करता रहे।🍃🍃🍃