श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 07-03-2018 दिन- बुधवार
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अप्रिय ,कटुक, कठोर शब्द नहीं, कोई मुख से कहा करे.......✍🏻
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर , अशोकनगर (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने मेरी भावना के अंतिम काव्य पर प्रवचन देते हुए बताया कि मेरी भावना की ये पंक्तियां अंतर चेतना को जाग्रत करती है। नयी ऊर्जा को प्रभावित करती है । शब्द एक बहुत बड़ी शक्ति होती है ,शब्द का बल ऊर्जा सबसे बड़ी है ।बड़े -बड़े बम्बो के विस्फोट से भी खतरनाक शब्दो का विस्फोट है। बाह्य शक्तियां काम करे या न करे शब्द शक्ति बड़ा काम करती है। जैसे की महाभारत की कहानी आपने सुनी होगी ,मात्र कुछ शब्दों से महाभारत का युद्ध हो गया ।द्रोपदी ने बस इतना ही कहा था -'अंधे का पुत्र अन्धा' और बस महाभारत का युद्ध हो गया।
मुनिश्री ने बताया इसलिये साधुओं को मोन रहने के लिए कहा जाता है ,और मुनिराज रात्रि में मौन रखते है क्योंकि वो मुनि है। यद्यपि 28 मूलगुणों में कोई भी मूलगुण मौन रहने के लिए नहीं है लेकिन अपनी वाणी को अपने बस में करने के लिए भाषा समिति, उत्तम सत्य धर्म, सत्य महाव्रत और वचन गुप्ति का पालन करने के लिए मुनिराज मौन रहते है और जब भी बोलते है तो हित, मित ,प्रिय वचन बोलते है। कवि कहता है -'अप्रिय, कटुक, कठोर शब्द नहीं ,कोई मुख से कहा करे ' गोली और बोली में इतना अंतर है कि गोली का घाव तो भर जाता है परन्तु बोली का घाव नहीं भर पाता। जैसे की लकड़हारे ने शेर को गीदड़ कह दिया था तो वह शेर कहता है -मुझे कुल्हाड़ी से मार दो लेकिन गीदड़ मत कहो। इसलिये किसी ने कहा भी -'शब्द सम्हारे बोलिये ,शब्द के हाँथ न पाव; एक शब्द अमृत करे, एक हृदय में घाव' हम बिना विचारे बोल देते है। आचार्य भगवन कहते है कि शब्दो को सम्भालना चाहिए पहले शब्दो को तौलो बाद में कुछ मुख से बोलो ।बिना हाँथ पाव का शब्द गहरा घाव करता है और शब्दों के घाव भरते नहीं है। इसलिए अच्छे वचन बोलो ,मधुर वचन वशीकरण मंत्र की तरह होते है। प्रेम का धागा कच्चा होता है शीघ्र टूट जाता है इसलिए शब्द सम्भालकर बोलो ।सोच विचार कर बोलोगे तो हर व्यक्ति प्रसन्न हो जायेगा।
मुनिश्री ने बताया यदि आप घर के नोकर से भी प्रेम से बोलते है तो वह नोकर भी आपका हर काम करने को तैयार रहता है।
मुनिश्री ने बताया कि- 'सत्यम द्व्यात, प्रियम माद्व्यत, सत्य मप प्रियम' अर्थात सत्य बोलो प्रिय बोलो ,परंतु अप्रिय सत्य भी मत बोलो। सत्य बोलो पर प्रिय बोलो ऐसा सत्य भी मत बोलो जो अप्रिय हो। कहा जाता है-' काना से काना कहो ,तुरतहि जाहे रूठ; धीरे- धीरे पूछ लो, कैसे गई है फुट' अर्थात कोई व्यक्ति आँखों से काना है और अपने उससे कह दिया ऐ कनवा तेरी आँख कैसे फुट गई? तो वह लड़ने को तैयार हो जायेगा। और यदि आपने मधुर भाषा में ,मधुर शब्दो में उससे पूछा भाई आपको क्या तकलीफ हो गई है? आपकी आँख खराब हो गई है क्या? तो वह बड़े प्यार से उसके बारे में बता देगा। उसके सम्मान का ध्यान रखना चाहिए ।एक शराबी व्यक्ति से उसके मित्रो के सामने शराबी मत कहो वरना वह कभी शराब नहीं छोड़ पायेगा। कोई व्यक्ति मन्दिर नहीं जाता उसकी आप हँसी मत करे वरना वो कभी मन्दिर नहीं जा पायेगा। आप उसे प्यार से अपने पास बैठा ले मधुर वचन बोले ,प्रिय वचन बोले ,अच्छे शब्दो का प्रयोग करे और फिर देखे वो आपकी बातों को कैसे नहीं मानता है।
मुनिश्री ने कहा रोस में व्यक्ति को होश नहीं रहता और कभी -कभी व्यक्ति को न चाहते हुए भी कठोर वचन रोस में मुख से निकल जाते है। मुनिराज तो सुबह और शाम दोनों टाइम हर जीव के प्रति क्षमा याचना करते है और कहते है-' खम्मामी सब्ब जीवणं, सब्बे जीवा खमंतु में; मेत्ति में सब्ब भु देशु, वेरं मज्झम न केण्वी' सभी जीव मुझे क्षमा करें ,मैं सभी जीवों को क्षमा करता हु, मेरा किसी भी जीव से वैर भाव नहीं है सभी जीवों से मैत्री भाव है। ऐसी भावना भाते रहते है और सबसे प्रिय बोलते है।
मुनिश्री ने आगे की पंक्ति बताते हुए कहा कि कवि ने लिखा है- ' बन कर सब युग्वीर हृदय से ,देशोन्नति रत रहा करे; बस्तु स्वरूप विचार ख़ुशी से, सब दुःख संकट सहा करे' श्रावक ह्र समय भगवान से प्रार्थना करता है ,पूजन करता है, शांतिधारा करता है तो बोलता है -हे भगवन ! शांतिनाथ हमारे पुर नगर गांव में रहने वाले प्राणियों राजा, महाराजा, नागरिकों को शांति प्रदान कीजिये। शांति तब बन पायेगी जब हम दूसरों के दुःख समझने लगे जायेगे तो हमारे कष्ट भी दूर हो जाएंगे और हमारा देश शांति के लक्ष्य को पा सकेगा और उन्नति कर सकेगा। कवि की इन पंक्तियों के पीछे यही छुपा है कि आज का जो युवा वर्ग है वे हृदय से देशोन्नति में सलग्न रहे। मात्र भाषण या मंत्र से नहीं अपितु अंतर्मन से देशोन्नति के रास्तों को खोले तो देश उन्नति को प्राप्त करेगा। और अन्त की पंक्ति कहती है जीवन के कभी दुःख के क्षण भी आते है तथा कभी सुख के ।सभी दिन एक जैसे नहीं होते परंतु प्रायः होता ऐसा है कि सुख आने पर व्यक्ति फूल नहीं समाता। और दुःख, संकट व विपत्ति के आने पर घवरा जाता है तो आचार्य भगवन कहते है दुःख, विपत्ति ,संकट से घवराये नहीं अपितु बस्तु स्वरूप का विचार करें।हे भव्य! साम्य भाव धारण कर लीजिए ।पं. दौलत राम जी ने छः ढाला में लिखा है- ' पाप पुण्य फल माहि, हरख बिलखो मत भाई; यह पुद्गल पर्याय उपजे, बीन से फिर थाई' अर्थात सुख में फूलों मत ,दुःख में कुलो मत क्योकि ये पाप व पुण्य दोनों ही पुद्गल की पर्याय है। तुम्हारा वास्तविक स्वभाव नहीं है। जो व्यक्ति ,प्राणी स्वभाव का आश्रय लेते है उनके अन्दर समता का प्रादुर्भाव होता है। और एक दिन अवश्य वे कर्मो का क्षय कर निर्वाण सुख को पा लेते है।
मुनिश्री ने बताया मेरी भावना की ये पंक्तियां बहुत महत्व शाली है तथा सम्पूर्ण त्त्वभ्याश का सार स्वरूप है। इन्हें अपने जीवन में अपनाकर आप उस वास्तविक सुख की ओर अपने कदम बढ़ा सकते है।🌳🌳
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