श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 23-03-2017 दिन- शुक्रवार
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अभिषेक पूजा करना श्रावक का कर्त्तव्य है🌸🌿🌸🌿
बडोरा ग्राम में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने प्रवचनसार की स्वाध्याय के माध्यम से बताया कि चतुर्थ काल में भी जिन बिम्ब हुआ करते थे, प्रतिमायें हुआ करती थी ।जब साक्षात तीर्थंकर भगवान भी होता थे ।तीर्थंकर के समोशरण में चैत्य भूमि होती है, चैत्य वृक्ष भूमि होती है, स्तूप भूमि होती है इन भूमियों में तीर्थंकर साक्षात् विराजमान होने पर भी वहा जिन बिम्ब होते है, जिन चैत्य होते है ।मैं इसलिये आपको बता रहा हूँ की कही आपके मन में ये न बैठा हो ,की जब भगवान होते होंगे तब मूर्तियों की पूजा नहीं होती होगी ।भगवान के होने पर भी अरिहंत की प्रतिमा की उपासना होती है। साक्षात् अरिहंत के आप दर्शन ही कर पाओगे ,उनकी वाणी ही सुन पाओगे परन्तु उनका अभिषेक नहीं कर पाओगे।
मुनिश्री ने बताया तीन लोक में अकृतिम जिन चैत्यालय है और उन तीनों लोकों में जिन प्रतिमायें विराजमान है ।ऊर्ध्वलोक में ,अधोलोक में साक्षात् तीर्थंकर भगवान विराजमान नहीं होते ,मध्यलोक के ढाई द्वीप में ही साक्षात् तीर्थंकर भगवान हो सकते है। ढाई द्वीप के बाहर भी साक्षात् तीर्थंकर नहीं जा सकते उनका ज्ञान तीनो लोक में हर जगह जा सकता है लेकिन वह स्वयं नहीं जा सकते ।तीन लोक के बाहर भी अकृतिम जिन बिम्ब विराजमान होते है जैसे की नन्दीश्वर द्वीप में भी अकृतिम चैत्यालय विराजमान है ,जिन प्रतिमायें विराजमान है वहाँ पर देव जाकर वंदना करते है ,नमस्कार करते है। उसी प्रकार सभी देव जिनेन्द्र भगवान की अर्चना करने के लिए नन्दीश्वर द्वीप जाते है ।मनुष्य वहाँ पर नहीं जा सकते है ।
मुनिश्री ने बताया कि श्रावक के षड आवश्यक कर्तव्य में जिन पूजा अभिषेक पूर्वक होती है। पर अर्हंत के होने पर अर्हंत की प्रतिमा की आराधना अभिना भाव नहीं है लेकिन समोशरण में अभिना भाव है। बिना प्रतिमा के समोशरण ही नहीं होता है। यदि समोशरण को बिना प्रतिमा के स्वीकार लोगे तो चैत्य भूमि का आभाव हो जायेगा। सबसे पहले मानस्तम्भ में चतुर्बिम्ब विराजमान होते है। इसलिए आपको यह अब स्वीकारना पड़ेगा जहाँ-जहाँ अर्हंत का समोशरण होगा वहा जिन बिम्ब की तथोत्पत्ति ,जहाँ-जहाँ नहीं होगा वहा अन्यथोतपत्ति, फिर भी आत्म भूत नहीं है ।
मुनिश्री ने बताया पूजन के अंग की दृष्टि से देखते हो तो अभिषेक भी एक अंग है ,यथार्थ है। की श्रावक को अभिषेक के साथ पूजा में जो आनंद आता है वो भावो की विशुद्धि के लिये है न की परिणामो की अशुद्धि के लिये ।वंदना भी है वह वन्ध के लिए नहीं है विशुद्धि के लिए है। नहीं तो आप इसी विकल्प में पड़ जाओ की नमोस्तु करू की वन्दामि करू। अरे भैया ! आप क्या करना चाहते हो अच्चेमी ,पुज्जेमी, वन्दामि, णमस्सामी, दुक्खको, कमक्खो, बोहोलाहो ,सुगईगमणम , समाही मरणम ,जिन गुण सम्पत्ति होदू मज्झम।। यहाँ तो आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी न नमोस्तु कह रहे है, न वंदना कह रहे है वे तो कह रहे है पड़मामी ,वन्दामि बोल रहे है इसका तात्पर्य ये मत समझ लेना की कुन्द कुन्द स्वामी ने ,पड़मामी ,वन्दामि, णस्सामी कहा है ।इसका अर्थ ये मत लगाइये की नमोस्तु न हो ।कोई कहता है कि मुझे वन्दामि बोलो कोई कहता है कि नमोस्तु बोलो ।भैया ये नमस्कार के भेद है ,विकल्पों में मत पड़ो वन्दामि भी कर सकते हो और णस्सामी भी कर सकते हो ,पड़मामी भी बोल सकते हो ,नमोस्तु भी बोल सकते हो लेकिन रूडी में नमोस्तु प्रसिद्ध है। और उस रूडी हो विधि पूर्वक स्वीकार किया है ।
मुनिश्री ने बताया आचार्य इंद्र नन्दी स्वामी ने "इंद्र नन्दी नीति सार" में स्पष्ट लिखा है कि क्षुल्लक को इक्क्षामि पञ्च परमेष्ठि को नमोस्तु ,सभी को नमस्कार एक सा नहीं किया और सभी को आशीर्वाद भी एक जैसा नहीं दिया। अष्टपाहुड में आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी ने मुनियों को भी इच्छाकार कहाँ है अर्हंत को भी इच्छाकार कहाँ है इसलिए आप विकल्प मत करो ।प्रभु आपने जिस अवस्था की प्राप्ति की है ,जिन गुणों की प्राप्ति की है उसकी में इच्छा करता हूँ। सूत्रपाहुड में भी इच्छाकार का प्रयोग किया है ,कोई नमस्कार भी करे तो मुनिराज एक जैसे शब्दों का प्रयोग न करे ,ऐसा नहीं है कि आप सभी को एक जैसा आशीर्वाद दे दो कोई चाण्डाल नमस्कार करता है तो उससे यह नहीं कहेंगे कि धर्म वृद्धिरस्तु उसे पाप क्षयोस्तु कहेंगे, तेरे पाप का क्षय हो ।चाण्डाल नहीं है परंतु मिथ्यादृष्टि है उसने नमोस्तु किया तो क्या कहेंगे? दर्शन विशुद्धि ,तेरे दर्शन की विशुद्धि हो। कोई धर्मात्मा नमस्कार करता है ,सम्यग्दृष्टि जीव ,पाक्षिक ,या नैष्टिक श्रावक होगा उससे कहेंगे धर्म वृद्धिरस्तु ,आपके धर्म की वृद्धि हो। कोई समलिंगी नमस्कार करता है, साधु परमेष्ठि नमस्कार करते है तो आचार्य पहले तो पिच्छि से प्रति नमोस्तु करेंगे और फिर आशीर्वाद में कहेंगे समाधिरस्तु ।कोई आर्यिका ने नमोस्तु किया वृद्ध है सल्लेखना में जा रही है तो समाधिरस्तु ।मुनिराज कहेंगे तो भी समाधिरस्तु , समाधि की प्राप्ति हो ।
मुनिश्री ने बताया वंदना ,आशीर्वाद, नमस्कार सबकी विधि का विधान हमारे आगम में है। उपचार को अभाव में मत देखना ,जिसमें उपचार है उसका सद्भाव है, जिसका उपचार है उसका स्वभाव था ,बस्तु में उपचार नहीं होगा ,बस्तु का उपचार नहीं होता ।
मुनिश्री का मंगल विहार आज दोपहर 4 बजे श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, चांदखेड़ी, खानपुर, जिला- झालाबाड पाटन, राजस्थान के लिए होगा जहाँ पर मुनिश्री का रात्री विश्राम और कल की आहारचर्या सम्पन्न होगी ।🌱🌱🌱🌱
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