श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 01-03-2018 दिन- गुरुवार
✍🏻🌿✍🏻🌿✍🏻🌿✍🏻🌿
श्रावक के चार भाव मैत्री, प्रमोद ,कारुण्य और माध्यस्थ.....✍🏻
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, अशोक नगर, (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज विराजमान है। और पं. जुगल किशोर मुक्तार जी द्वारा रचित मेरी भावना पर मुनिश्री के द्वारा बहुत ही सुंदर ववेचन चल रहा है।
मुनिश्री ने आज श्रावक के चार भाव बताते हुए बताया कि जो श्रावक अपने जीवन में जिनेन्द्र भगवान के बताए हुए इन चार भावो को अपनाता है वह बड़ा ही पुण्य शाली जीव होता है।
मुनिश्री ने बताया श्रावक को अपने श्रावक धर्म का पालन करने के लिए सर्वप्रथम मैत्री भाव का पालन करना चाहिए। आचार्य अमितगति मुनिराज ने सामायिक पाठ में पहले काव्य में उन चारो भावो का वर्णन किया ।उन्होंने
कहा है -
''सत्त्वेषु मेत्रीम, गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु, कृपा परत्वम। माध्यस्थ भावम्, विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा, विद्धातु देव।।''
सबसे पहला भाव सत्त्वेसु मैत्रीम अतः सभी जीवों से मैत्री भाव रखना ।गुणिषु प्रमोदम अर्थात गुणी लोगो से प्रमोद भाव रखना ।क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम अर्थात जो जीव दुःखी है उन पर कारुण्य भाव, करुणा के भाव रखना। माध्यस्थ भावम् विपरीत वृतौ और जिनकी बुद्धि विपरीत हो गई है उन से माध्यस्थ भाव रखना, यही श्रावक के चार भाव है। आचार्य अमितगति मुनिराज का अनुकरण करते हुए पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने मेरी भावना में भी इन्ही चार भावो का वर्णन देते हुए बताया है । 'मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवो से नित्य रहे; दीन दुःखी जीवो पर मेरे, उर से करुणा स्त्रोत बहे' दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतो पर ,क्षोभ नहीं मुझको आवे; साम्य भाव रख्खू में उन पर ,ऐसी परिणति हो जावे।।' सबसे पहले पं. जी ने बताया मैत्री भाव जगत में मेरा, सब जीवो से नित्य रहें' यहाँ मनुष्यो से मैत्री भाव नहीं की मात्र मनुष्यो से ही मैत्री भाव रख्खा जाये। किसी जीव का नाम नहीं लिया न देव गति का, न तिर्यंच गति का, न मनुष्य गति का ,न नरक गति का यहाँ पर ये बताया जा रहा है ,जितने भी जीव संसार में है ,तीनो लोको में है उन तीनों लोकों के जीवों से मेरा मैत्री भाव हो, मित्रता का भाव हो ,प्रेम बात्सल्य का भाव हो ,उन सभी के प्रति मेरे हित की भावना हो , कल्याण की भावना हो इसलिए जब शान्ति धारा करते है उसमें भी हम यही भावना भाते है- 'सम्पूजकाना प्रतिपालकनाना, यतीन्द्र सामान्य तपोधनाना ,देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञा, करोतु शांतिम भगवन जिनेन्द्रा' मात्र अपने कल्याण की भावना नहीं भाते ,जगत में जितने भी जीव है उन सभी जीवों के कल्याण की भावना को शांतिधारा के माध्यम से हम प्रार्थना करते है ।तो यहाँ पर सभी जीवों से मैत्री भाव रखने का भाव रख्खा जा रहा है और वो कोई दिन विशेष पर नहीं प्रतिदिन जीवो की हित की भावना और मित्रता का भाव मन में रहें ऐसा पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने कहा। दूसरी पंक्ति में कारुण्य भाव का वर्णन करते हुए कहते है- दीन दुःखी जीवो पर मेरे, उर से करुणा स्त्रोत बहे' अर्थात जो अपने कर्मो से परेशान है ,असाता वेदनीय कर्म का उदय चल रहा है ,बहुत दुखी है ,पीड़ा में है, जीवन में कोई न कोई संकट बना हुआ है, जीवन के लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर पा रहे है, कुछ मजबूरियां ऐसी है उन मजबूरियों के कारण बड़ी दुःखी है, उन जीवो पर जितना बन सके ,जितनी आवश्यकता हो उतनी उन पर आप करुणा का भाव रख्खे, यही कारुण्य भाव है। उनका उपचार कराना ,उनको खाना खिलाना ये करुणा का भाव है ,करुणा का भाव करे ।तीसरा भाव बताते हुए बताया -दुर्जन क्रूर कुमार्ग रतो पर, क्षोभ नहीं मुझको आवे' जो दुर्जन लोग है ,कुसंगतियो में फस चुके है, सप्त व्यसनी है ,कुमार्ग पर चलने वाले है, मिथ्यादृष्टि है, रागी देवी -देवताओं को नमस्कार करते है उनको देखकर मन में गिलानी न आये। मन में क्षोभ ,खिन्नता न आये ,वो जैसे है वैसे ही रहे ,मुझे उसमे उनको देखकर कोई खेद, खिन्नता नहीं आना चाहिए। हाँ उन्हें समझाने का प्रयाश करना चाहिए। अगर मेरे समझाने से उनको समझ में आ जाये ,एक बार नहीं,दो बार नहीं ,तीन बार समझाने से तब भी अगर समझ में न आये तो ,क्या कहा पं. जी ने? 'साम्य भाव रख्खू में उन पर ,ऐसी परिणति हो जावे' समता भाव रखु ,लड़ाई झगड़ा करने मत बैठ जाओ ।समता भाव धारण करना क्योकि उन जीवो की विपरीत बुद्धि हो गई है, मिथ्यात्व में चली गई है इस कारण से अब बो किसी की बात समझाने पर भी नहीं समझेंगे इस कारण से ऐसे अपने परीणाम, ऐसी अपनी परिणति को करे की उन सभी जीवों पर समता भाव रखे। और अंतिम भाव बताते हुए पं. जी ने बताया -'गुणी जनो को देख हृदय में, मेरे प्रेम उमड़ आवे ;बने जहाँ तक उनकी सेवा, करके यह मन दुःख पावे' कितनी सुन्दर बात बताते हुए पं. जुगल किशोर मुक्तार जी कह रहे है हम से जो बड़े है, गुण बान है, संस्कार बान है ,उनको जब मैं देखु, उनके जब मैं दर्शन करू, उन से जब मैं मिलु तो मेरे हृदय में उनके प्रति प्रेम उमड़ आये, बात्सल्य के भाव उमड़ आये, रोम -रोम पुलकित हो जाये ऐसी मेरी भावना और जब तक जितना बन सके उनकी मैं सेवा करू और अपने मन में सुख को प्राप्त करू । ऐसे चार भाव श्रावक अपने जीवन में, अपने मन में, अपने हृदय में धारण कर ले तो वह श्रावक दुःखी नहीं हो सकता वह सुख का जीवन यापन करेगा। स्वयं सुखी रहेगा और दूसरों को भी सुखी रखेगा।🌹🌹