श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 28-02-2018 दिन- बुधवार
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अहंकार का भाव न राख्खू ,नहीं किसी पर क्रोध करू........🖋
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, अशोक नगर (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने मेरी भावना पर अपना मार्मिक प्रवचन देते हुए कहा कि चारो कषायों का त्याग करना बहुत जरूरी है ।यद्यपि यदि हम कषायों की बहुलता की बात करे तो क्रोध कषाय नारकी जीवो में पाई जाती होती ,मान कषाय मनुष्यो में अधिक पाई जाती है ,मायाचारी तिर्यंचों में, और लोभ कषाय देवो में सर्वाधिक होती है। होती चारो कषाय है लेकिन बहुलता की दृष्टि से देखा जाये तो मान कषाय मनुष्यों में ज्यादा पाई जाती है।
🍂मुनिश्री ने बताया एक अग्नि में भी  चारो कषाय समाहित हो जाती है ।अग्नि में क्रोध होता है तो जो अग्नि को छूता है वो जल जाता है। मान कषाय होती है तो ऊपर की ओर लो जाती है। मायाचारी करती है तो ऊपर से राख हो जाती है और अंदर धधड़कता हुआ अंगारा हो जाता है। और लोभ कषाय जब होती है तो जितना भी आ जाये वह सबको भस्म कर देती है ,अपने में समाहित हर देती है। चारो कषाय एक अग्नि में ही समाहित हो जाती है।
🍂मुनिश्री ने बताया इसलिये हमे चारो कषाय का त्याग करना है पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने बहुत सुन्दर बात बताते हुए कहा 'अहंकार का भाव न रख्खू, नहीँ किसी पर क्रोध करू' अर्थात अपने अंदर के मान घमण्ड को छोड़ू उसके बाद किसी भी जीव पर क्रोध नहीं करू। क्रोध आदमी को जलाता है। क्रोध की अग्नि में जीव अपने आप को जलाता है और साथ ही दूसरे को भी जलाता है। क्रोध में जब आदमी किसी से बात करता है तो वह बोलता नहीं है वह वकता है। बोलना पाप नहीं है वकना पाप है। क्योंकि जब वह वकता है तो आँखे बंद हो जाती है और मुंह खुल जाता है। वह यह नहीं जानता है कि मैं कहाँ खड़ा हूँ ,किस स्थान पर हूँ, किसके सामने हूँ ,क्या बोल रहा हूँ। क्रोध जब भी आता है तो विवेक की आँखों में पट्टी बाध कर आता है। इसलिये क्रोध का भी त्याग करना चाहिए। आगे बताया 'देख दुसरो की बढ़ती को ,कभी न ईर्ष्या भाव धरू ' यदि कोई तरक्की कर रहा है, कोई उन्नन्ति कर रहा है, कोई प्रगति कर रहा है तो उसकी प्रगति को देखकर मन में ईर्ष्या के भाव , जलन के भाव न धरू। लोभ कषाय को छोड़ू ,जो है, जितना है उतने में ही सन्तोष रखे। ऐसी भावना भाना चाहिए ।
🌷मुनिश्री ने बताया के जीव मायाचारी करता है ,मायाचारी से तिर्यंच गति का बन्ध होता है इसलिए अपना व्यवहार सत्य बनाये, सरल बनाये  -' मन में हो सो वचन उच्चरिये, वचन हो सो मन सो करिए' इसका तातपर्य है मन वचन काय तीनो एक होना चाहिए। ऐसा न हो की मन में कुछ हो और वचन में कुछ हो ,अपनी काया से कुछ और कर रहे हो यही मायाचारी का त्याग है। इसी तरह से मन में भाव होना चाहिए। और  जितना बन सके औरों का उपकार करने का प्रयाश करना चाहिए। इन चार कषायों को त्याग  कर के ही व्यक्ति अपने श्रावक धर्म का पालन कर सकता है।
🌺मुनिश्री ने बताया श्रावक धर्म का पालन करने के लिए चार कषाय छोड़ना, पाँच पाप को छोड़ना, सप्त व्यशन को छोड़ना  ।अपने छः कर्तव्यों का पालन करना ,बारह व्रतो का पालन करना, ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करना इन से श्रावक धर्म उत्कृष्टता से पालन किया जा सकता है। यही श्रावक का धर्म है अपने जीवन को सरल और सत्य बनाये ।पाप ,कषाय, व्यशन से रहित बनाये और श्रावक से सन्त बनने की तैयारी करें। जब आप सन्त बन जायेंगे तो आप अर्हंत भी बनेंगे और अर्हंत बनने के पश्चात आत्मा सिद्ध अवस्था को भी प्राप्त करेगी। तो उस परम सुख ,परम् आनंद की प्राप्ति के लिए श्रावक से साधु बनने के लिए अपने धर्म का पालन करे और अपने जीवन को सरल बनाये।🍁🍁