श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 08-02-2018 दिन- गुरूवार
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विवेक के आभाव में तुम्हारी दया ,अदया में और करुणा ,अकरुणा में बदल जायेगी.......🍁
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, बामौर कला, जिला शिवपुरी (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने अपने मंगल प्रवचन के माध्यम से बताया कि शान्ति का अनुभव तभी हो सकता है जब सुख होगा। सुख नहीं होगा तो शान्ति का वेदन नहीं हो सकता । आत्मा सुखमय है तो संकलेशता भी नहीं है। सुख नहीं है तो अशांति है ।हम सामान्यतः जरूर बोल देते है कि शान्तिमय जीवन चल रहा है लेकिन क्या हमारे इन्द्रिय सुख पूर्ण है? नहीं। जबकि भोगभूमि जीव अशांत नहीं रहता क्योकि उसके पास इन्द्रिय सुख पूर्ण है वहाँ कभी लड़ाई झगड़ा नहीं होता, सुखमय जीवन व्यतीत करते है।
मुनिश्री ने बताया सम्बन्ध दुःख से होते है ।जहाँ सम्बन्ध है वहाँ सुख -दुःख होते है सम्बन्ध के बिना सुख -दुःख नहीं होते। हमने बहुत से सम्बन्ध स्थापित कर रख्खे है तो कोई जन्मेगा तो कोई मरेगा ,कोई हँसेगा तो कोई रोयेगा उनके पीछे आपको हँसना -रोना पड़ता है। उनका कोई सम्बन्ध नहीं है भोगभूमि के जीवों का तो क्यों हँसेगा, क्यों रोयेगा? नगर में प्रतिदिन कितने घरों में प्रशुति होती होगी और कितने घरों में रोज विमान उठते होंगे ,ऐसा होता है कि नहीं होता है? उन सभी की आप जानकारी लोगो तो आप प्रसन्न होंगे और रोओगे। यदि मैं जगत के लिए हँसने लग जाऊँगा, रोने लग जाऊँगा तो मैं अपनी स्वतंत्र सत्ता का वेदन कब करूंगा? लेकिन जिन से हमारा सम्बन्ध है ,हमारे सगे सम्बन्धी है, परिवार जन है, इष्ट जन है उनका संयोग- वियोग होता है तो सुख -दुःख होता है। तो जहाँ सम्बन्ध है वही सुख -दुःख है।
मुनिश्री ने बताया मुनिपने का आनन्द अपेक्षा करके नहीं ले सकते हो ।मुनि को श्रावक से मौन ले लेना चाहिए क्योंकि बो जो भी बात करते है उसमें धर्म की बाते बहुत कम होती है और धीरे -धीरे अपने दुखड़े सुनाना प्रारम्भ कर देते है। जब निष्ठुर से निष्ठुर पुरुष दूसरे के दुःख देखकर पिघल सकता है तो साधु तो बहुत नाजुक हृदय होता है तो जल्दी ही पिघलेगा और तुम्हारे दुःख में पिघल गये तो वे स्वयं दुःखी हो जायेंगे जबकि हम स्वयं के दुःख दूर करने के लिए आये है। मोक्ष के सुख की अनुभूति करना है तो साधु सुख में आपको उतरना पड़ेगा। जब हम साधु के ही सुख का वेदन नहीं कर पायेंगे तो मोक्ष के सुख में कैसे पहुँच पाएंगे। महावीर की वाणी में निर्ग्रंथों के लिए करुणा को मोह का चिन्ह रखा। स्याद करुणा मोह का चिन्ह है और स्यात अकरुणा मोह का चिन्ह है। मिथ्यादृष्टि जीव के लिए अकरुणा दर्शन मोहनीय का कारण है क्योंकि अनुकम्पा लक्ष्य है ।सम्यग्दृष्टि जीव के लिए करुणा मोह का कारण है चारित्र मोहनीय ।दण्डक राजा ने 500 मुनिराजों को घानी में पेल दिया ।धन्य है उन की समता को उन योगियों ने ची भी नहीं किया ।कर्म उदय को मानकर के समता से सल्लेखना को प्राप्त हो गए ,आह की आवाज नहीं आई। करुणा थी इसलिए मरने पर करुणा भाव नहीं आ रहा था निज के प्रति यही समयसार था। यही समयसार है कि घानी में पेला जा रहा है फिर भी कर्म को ही पेल रहे थे ,शरीर को तो ज्ञाता द्रष्टा बनके देख रहे थे ।यह काम तो हो चुका लेकिन उसी समय एक वीतरागी मुनि उसी मार्ग से निकल रहे थे ,किसी से उनसे दण्डक राजा के बारे में बता दिया ।उन मुनि को आक्रोश आ गया और बाह कन्धे से अशुभ तेजस का पुतला निकला और दण्डक राजा के राज्य को भष्म करके मुनिराज को भी भष्म कर दिया। इसलिये सर्वत्र विवेक शब्द का प्रयोग है ,हर काम विवेक से करे ,यदि विवेक नहीं होगा तो आप गृहस्थ जीवन के कार्य भी अच्छे से नहीं कर सकते।
मुनिश्री ने बताया विवेक के आभाव में तुम्हारी दया अदया में बदल जायेगी ,विवेक के आभाव में तुम्हारी करुणा अकरुणा में बदल जायेगी ।वो वीतरागी मुनि इतने आक्रोश में आ गए की अशुभ तेजस से दण्डक राजा की पूरी नगरी झुलस गई और स्वयं मुनिराज भी झुलस गये।
मुनिश्री ने बताया गोताखोर डूबते हुए को निकालने जाता है तो पहले अपने शरीर को सम्भालता है फिर दूसरे का हाँथ पकड़ता है। भैया! किसी पर करुणा भी करना जो तो करुणा तेरी कषाय में न बदल पाये और जिस क्षण करुणा कषाय में बदलेगी उस क्षण विवेक भंग ।विशालता साम्य भाव में है ,विश्व ज्ञातृत्व पना साम्य भाव में आता है ।मोह के काल में ,क्षोभ के काल में अन्धकार दिखाई देता है। भैया !जरा सी अशुभ घटना घटने पर उस समय देखो तुम अपने परीणाम तब मालूम चलता है कि मोक्ष की प्राप्ति कितना गहरा ज्ञान है। मोक्ष मार्ग की स्थिरता कितना गहरा ज्ञान है, मोक्ष मार्ग में प्रेवेश कितना गहरा विज्ञान है इसलिए सबसे पहले अपने जीवन में विवेक धर्म को अपनाए। दया और करुणा हमारा स्वभाव है अपने स्वभाव में रहे।🍄
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