श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 07-02-2018 दिन- बुधवार
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अहिंसा, दया, दर्शन, चारित्र और बस्तु का स्वभाव धर्म है..... 🍃
श्री दिगम्बर जैन मन्दिर बड़ीबामोर ,जिला अशोकनगर (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज का मंगल आगमन हुआ और मुनिश्री ने अपने मंगल प्रवचन के माध्यम से बताया कि विभिन्न- विभिन्न आचार्यो ने विभिन्न ग्रन्थों में धर्म की परिभाषा को अलग- अलग बताया है। जो व्यक्ति हिंसा करता है उसके लिए धर्म की परिभाषा बताते हुए कहा -'अहिंसा परमो धर्मः' अर्थात अहिंसा ही परम् धर्म है ।जो व्यक्ति निर्दयी है ,दया नहीं करता है उसके लिए धर्म की परिभाषा बताते हुए कहा -'धम्मो दया विशुद्धओ' जो दया से विशुद्ध है वही धर्म है। और जो व्यक्ति कभी जिनेन्द्र भगवान के दर्शन नहीं करता है ,सम्यग्दर्शन पर श्रद्धान नहीं करता है उस व्यक्ति के लिए धर्म की परिभाषा बताते हुए आचार्य भगवन कहते है- 'दर्शन मूलो धम्मो' धर्म का यदि कोई मूल है तो वह दर्शन है। इसके बाद एक अन्य व्यक्ति के लिए धर्म की परिभाषा बताते हुए कहा कि - 'चारित्रम खलु धम्मो' अर्थात चारित्र को धारण करना ही धर्म है ।व्रतो को धारण करना, नियम को धारण करना, संयम को धारण करना ही धर्म है। और जो व्यक्ति नियम ,व्रत ,संयम ,चारित्र को धारण कर चुका है उस व्यक्ति के लिए धर्म की परिभाषा बताते हुए आचार्य भगवन कहते है- ' बस्तु स्वभावो धम्मो' अर्थात बस्तु का जो स्वभाव है वही धर्म है। जीव का स्वभाव ज्ञाता दृष्टा है ।जानना और देखना जीव का स्वभाव है। जानो ,देखो और जाने दो। जब जीव अपने स्वभाव में आ जाता है तो कर्मो के बन्धन से छूट जाता है।
मुनिश्री ने बताया जहाँ कषायिक भाव है, जहाँ बन्ध भाव है वही पर हिंसा है। तुमने निज पर दया नहीं की और निज भगवान आत्मा को तो संसार में भ्रमण करा रहा है तो तेरी निज पर दया नहीं है। भैया! धन कमा रहे हो। धम्मो दया विशुद्धओ ' दया से विशुद्ध धर्म तुम्हारे पास नहीं है इसलिए धन के लोभ में आप लिप्त हो रहे हो। क्रोध ,मान, माया ,लोभ कषाय चतुष्क में से कोई भी कषाय आपको परेशान कर रही है तो धम्मो दया विशुद्धओ का भाव है, दूसरे को भयभीत करके ध्यान बाटना ये हिंसा है। तत्वोपदेश भयभीत करने के लिए नहीं होता निर्भीकता के लिए है इसलिये जब साधु तत्व का उपदेश देते है तो हित-मित- प्रिय वचन का प्रयोग करते है। कभी उपदेश देते हुए आक्रोश नहीं होते। किसी के लिए अपशब्द का प्रयोग नहीं करते।
मुनिश्री ने बताया दूसरे के कहने से अथवा दूसरे की इच्छा की पूर्ति न करने से यदि मुझे अशुभ का बन्ध होने लग जाये अथवा मेरा अशुभ होने लग जाये तो निज का कार्य किया कर्म व्यर्थ हो जायेगा। इसलिये आगम के मूल व्याख्यान को समझने की आवश्यकता है ।भय उत्पन्न करना दूसरे को भयभीत करना ,दूसरे से भयभीत होना ये धर्म नहीं है। किसी को डरा दिया की आप ये काम नहीं करोगे तो तुम्हारे साथ अनिष्ठ हो जायेगा। वह डर के वशीभूत होकर उस काम को करने के लिए तैयार हो जाता है चाहे वह मिथ्यात्व का ही क्यों न हो इसलिये तत्व का उपदेश, धर्म का उपदेश व्यक्ति को धर्म में लगाने के लिए किया जाता है।
मुनिश्री ने बताया महा मंत्र णमोकार में पञ्च परमेष्ठि को नमस्कार करता हूँ और पञ्च परमेष्ठि को नमस्कार करने से मेरे असाता - साता में परिवर्तित हो रहे है। जब मेरे सामने परमेष्ठि ही बैठे हुए है ,मैं उनकी ही आराधना कर रहा हूँ तो अनिष्ठ कैसे हो सकता है। परमेष्ठि ने आज तक किसी के लिए अनिष्ठ नहीं किये। भैया! परमेष्ठि के नियोग से अनिष्ठ हो नहीं सकता है इसलिए भयभीत भाषा से निर्भीक होकर रहना, भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । भयभीत होना भी हिंसा है ,स्वयं में भयभीत होना हिंसा है और दूसरे को भयभीत करना भी हिंसा है। जब तक जीवन में 'अहिंसा परमो धर्मः' , 'धम्मो दया विशुद्धओ' , ' दंशण मूलो धम्मो' नहीं आएगा तो 'चारित्रम् खलु धम्मो' कैसे आ सकता है अर्थात किसी से डरना नहीं और न ही किसी को डराना।जब चारित्र आएगा तभी बस्तु के स्वभाव को समझ पाएंगे ।
मुनिश्री ने बताया जब व्यक्ति को संसार से डर लगने लगता है वह डर ,डर नहीं है वह संसार ,शरीर, भोगो से विरक्ति है। निर्वेग भाव है, संवेग भाव है। तत्व व्याख्यान सुन कर किसी को मरने का डर नहीं लगता है। व्याख्यान सुनने से विषय भोगो से उदाशी आती है। इंद्र जाल में मत उलझ जाना किसी के ,शब्द जाल में मत उलझ जाना किसी के नहीं तो हर व्यक्ति अपने विषय की व्याख्या कर रहा है की आप हमारे पास आओ तुम्हारे सारे काम बन जायेंगे, ऐसा कह कर लोगो को भयभीत कर रहा है ।किसी की बातों में मत आइये सत्य ये है कि कषायी की कषाय की पूर्ति करना ही अनिष्ठ है। भैया! धर्म बहुत गहरा है। हम एक दूसरे की कषाय की पूर्ति को धर्म मान रहे है उसमे हम समझौता कर लेते है। जब सहज धर्म में प्रेवेश कर जायेंगे तो कषायी लोग तो मुझे देख कर रोयेंगे ,और रोये है ,और रो ही रहे है। जिन- जिन के अंदर कषाय है वो व्यक्ति रो ही रहा है। जैसे किसी जीव ने दीक्षा ली तो उसके परिवार वाले रोते ही है क्योंकि उनके अन्दर कषाय भरी हुई है। लेकिन जो दीक्षा लेता है वो सारी कषाय छोड़ कर संसार ,शरीर भोगो से विरक्त होकर जिन दीक्षा लेने को आया है। यही कारण है उसके अन्दर कषाय नहीं है वह नहीं रोता है ,उससे जो सम्बन्ध रखते है जिसके अन्दर कषाय है वही व्यक्ति अश्णुपात करता है।
मुनिश्री ने बताया धर्म हमे कभी संसार में भटकने की बात नहीं बताता। धर्म हमे संसार से मोक्ष की यात्रा कराता है। राग से वीतराग की ओर ले जाता है, भोग से योग की ओर ले जाता है इर अंत में मोक्ष पद प्राप्त करता है।🌳🌳