श्रवणबेलगोला में बारह वर्षों में होने वाला
महामस्तकाभिषेक और भगवान बाहुबली
बंगलूरु से लगभग 140 कि.मी. दूर पश्चिम में चेनपट्टन
(हासन जिला) के पास भारत का प्रसिद्ध तीर्थस्थल श्रवणबेलगोला है। बेलगोला का अर्थ है- सफेद सरोवर और श्रवणबेलगोला का अर्थ है, श्रमणों (साधुओं) का धवल सरोवर। चन्द्रगिरि और विंध्यगिरि पहाड़ियो के बीच यहाँ ऐसा ही एक सरोवर स्थित है। प्रथम तीर्थंकर भगवान ॠषभदेव तथा उनके पुत्र चक्रवर्ती सम्राट भरत के धाम अर्थात् मन्दिर यहाँ हैं। आचार्य भद्रबाहु तथा उनके शिष्य बने सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के धाम भी यहाँ हैं। इनके अतिरिक्त भी कई और मन्दिर तथा स्मारक श्रवणबेलगोला में हैं। लेकिन श्रवणबेलगोला की प्रसिद्धि तो भगवान् बाहुबली की 57 फीट ऊँची भव्य प्रतिमा से है जो विंध्यगिरि पहाड़ी पर बिना किसी सहारे के ग्यारह सौ सालों से खड़ी हुई है।
अद्वितीय प्रतिमा- एक ही शिला-खण्ड से बनी यह विश्व की सबसे ऊँची प्रतिमा है। इस श्वेत प्रतिमा की शोभा देखते ही बनती है। प्रातःकाल, दोपहर, सायंकाल और रात्रि में इसमें से अलग अलग रंगों की छटा प्रकट होती है। चाँदनी रातों और विशेष कर पूर्णिमा के दिन इसकी अद्भुत आभा मन को मोह लेती है। आज से लगभग ग्यारह सौ साल पहले गंग-वंश के सम्राट रछमल्ल के सेनापति चामुण्डराय ने इस भव्य प्रतिमा को श्रवणबेलगोला में स्थापित किया था।
ऐसी मान्यता है कि सम्राट भरत ने पोदनपुर में अपने अनुज बाहुबली की 515 अंगुल ऊँची स्वर्ण प्रतिमा स्थापित की थी। एक श्रावक से उक्त स्वर्ण प्रतिमा की कथा सुन कर अपनी माता की आज्ञा से चामुण्डराय इसकी खोज में निकले। काफी घूमने के बाद भी उन्हें बाहुबली की स्वर्ण-प्रतिमा नहीं दिखी। एक रात स्वप्न में उन्हें आदेश मिला कि श्रवणबेलगोला में चन्द्रगिरि पहाड़ी से वे एक वाण छोड़ें, जहाँ वाण गिरेगा वहीं बाहुबली के दर्शन होंगे। सेनापति चामुण्डराय ने प्रातः उठ कर शर सन्धान किया तो वह सामने विंध्यगिरि पहाड़ी पर जा कर गिरा। वहाँ एक विशाल शिलाखण्ड में उन्हें भगवान बाहुबली के दर्शन हुए। उसी समय उन्होंने उस शिला से बाहुबली की प्रतिमा बनवाने का संकल्प किया।
महामस्तकाभिषेक- अनेक शिल्पियों के वर्षों के अथक परिश्रम के बाद यह दिव्य प्रतिमा तैयार हुई तथा युगाब्द 4082 (विक्रमी 1037, ईस्वी 981) की फुलेरा दोज (फाल्गुन शु.2) को इसकी प्राण-प्रतिष्ठा हुई। प्रतिमा की विशालता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि गोमटेश्वर के पैरों के पंजों की ऊँचाई ही सवा तीन फीट है तथा प्रतिमा तीस कि.मी. की दूरी से दिखाई देने लग जाती है। प्राचीन मिश्र या यूनान में भी इतनी विशाल प्रतिमा कभी नहीं बनी।
प्राण-प्रतिष्ठा के पश्चात् प्रत्येक बारह वर्ष के बाद भगवान् बाहुबली की प्रतिमा का महामस्तकाभिषेक करना भी तय किया गया। पहला अभिषेक युगाब्द 4094 (विक्रमी 1049, ईसवी 993) में हुआ। तब से गोमटेश्वर (बाहुबली) का अभिषेक बारह सालों के अन्तराल से होता रहा है। प्रतिमा का 88 वाँ महामस्तकाभिषेक आगामी
7 फर. से 26 फर. तक तीर्थ-स्थल श्रवणबेलगोला में होगा।
अभिषेक समारोह का शुभारम्भ 7 फर. को होगा। 8 से 16 फर. तक बाहुबली के गर्भ-धारण, जन्म,दीक्षा, ज्ञान-प्राप्ति एवं मोक्ष के समारोह आयोजित किये जायेंगे। इन्हें पंच-कल्याणक उत्सव कहा जाता है। 17 फर. को पहला अभिषेक 108 कलशों से किया जायेगा। अगले दिन 1008 कलशों से बाहुबली का अभिषेक होगा। 19 से 25 फर. तक प्रत्येक दिन नारियल पानी, गन्ने के रस, दूध, हल्दी, चंदन, अष्टगंध आदि से अभिषेक होंगे। 26 फर. को समस्त आयोजनों का समापन है। इस अवसर पर सम्पूर्ण देश के श्रद्धालु इस तीर्थ-स्थल पर एकत्र होंगे। सन् 1981 में प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा के एक हजार वर्ष पूरे हुए थे। उस वर्ष भी श्रवणबेलगोला में एक भव्य आयोजन हुआ था।
अग्रज का अहंकार नष्ट किया
प्रथम तीर्थंकर श्री ॠषभदेव जी भारत सम्राट महाराज नाभि के पुत्र थे। भागवत पुराण (पंचम स्कंध) के अनुसार वे पूरी पृथ्वी के शासक थे। अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत के योग्य होते ही उन्होंने भरत को राजगद्दी सौंप कर सन्यास ले लिया और अपनी तपस्या से लोगों का कल्याण करते हुए तीर्थंकर हो गये। भरत भी अत्यंत यशस्वी हुए तथा उन्हीं के यश के कारण अपने देश का नाम भारत हुआ (भागवत-पंचम स्कंध)।
भरत चक्रवर्ती सम्राट थे। कहते हैं कि उन्हें इसका अहंकार हो गया। उनके सौ छोटे भाई और थे। बाहुबली को छोड़ कर प्रत्येक ने भरत का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। बाहुबली ने भरत को युद्ध की चुनौती दी। दोनों भाइयों के द्वंद्ध में भरत पराजित हो गये। बाहुबली ने अपने अग्रज का अहंकार नष्ट कर दिया। वे पहले से ही विरागी थे, अब वे दिगम्बर हो राज्य से निकल गये और साधना तथा लोक-कल्याण में लग गये।
बाहुबली ने श्रवणबेलगोला में ही मोक्ष प्राप्त किया। महाराज भरत ने पोदनपुर में अपने अनुज बाहुबली की स्वर्ण प्रतिमा स्थापित की। इसी प्रतिमा की खोज में निकले सेनापति चामुण्डराय को श्रवणबेलगोला में भगवान बाहुबली की प्रतिमा स्थापित करने का स्वप्न में आदेश मिला। चामुण्डराय का एक नाम ‘गोमट्ट’ भी था। इसलिए उनकी स्थापित की हुई बाहुबली की विशाल प्रतिमा का नाम गोमटेश्वर भी हो गया।
गुलाई माता की श्रद्धा
भगवान बाहुबली के महामस्तकाभिषेक से सम्बन्धित आठ सौ वर्ष पहले का एक प्रसंग ऐतिहासिक महत्व का है। तब भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों का आतंक शुरु हो गया था। मलिक काफूर ने दक्षिण में देवगिरि, वारंगल, द्वारसमुद्र, पाण्ड्य-राज आदि को परास्त कर भीषण अत्याचार किये। उसके लौटते ही कालमुख विद्याशंकर महाराज ने सम्पूर्ण दक्षिणापथ में एक शक्तिशाली साम्राज्य स्थापित करने का उपक्रम शुरु किया। एक तेजस्वी युवक हरिहर को उन्होंने दक्षिणापथ को एक करने का काम सौंपा। राय हरिहर ने महामण्डलेश्वर के रूप में युगाब्द 4438 (ईस्वी 1336,विक्रमी 1393) में विजय नगर साम्राज्य की नीव डाली और दक्षिण को एक करने में जुट गये।
उस समय श्रवणबेलगोला व्यापारी वर्ग के ‘वीरवणिगों’का केन्द्र था। इन श्रेष्ठियों के प्रमुख वायीजन नाम के महाश्रेष्ठि थे जिनकी सम्पत्ति का कोई पार ही नहीं था। भगवान बाहुबली के अभिषेक का समय आया तो वीर वणिगों के सारे सेवक रुष्ट हो कर चले गये। अब अभिषेक कैसे हो? ऐसे में राय हरिहर ने यह बीड़ा उठाया और अभिषेक की पूरी व्यवस्था की। भगवान बाहुबली की 57 फीट ऊँची प्रतिमा के मस्तक तक पहुँचने के लिये विशाल मंच तैयार किया गया। वहाँ से गोमटेश्वर के मस्तक पर दूध के कलश प्रवाहित किये जाने लगे, लेकिन दूध बाहुबली के चरणों तक नहीं पहुँच रहा था। सुबह से दोपहर हुई और शाम होने लगी लेकिन दूध नीचे तक नहीं पहुँचा। तभी एक पिछड़ी कही जाने वाली वृद्धा एक लोटे में दूध ले कर आई तथा अभिषेक का आग्रह करने लगी। वह दूध जब बाहुबली के मस्तक पर डाला गया तो पतली धार के रूप में यह ठेठ प्रतिमा के चरणों तक जा पहुँचा।
पिछड़ी जाति की वृद्धा का नाम गुलाई था और उसने उदाहरण प्रस्तुत किया कि भावना और श्रद्धा महत्वपूर्ण है। इसके बाद गुलाई माता की एक प्रतिमा भगवान गोमटेश्वर के चरणों के पास ही स्थापित की गई।
-कन्हैयालाल चतुर्वेदी
संपादक पाथेय कण