श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 03-02-2018 दिन- शनिवार
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जिस संगति से गति सुगति हो जाये ,वही सत्संगति है.....✍🏻
श्री दिगम्बर जैन मन्दिर, राजघाट, जिला ललितपुर (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज का मंगल आगमन हुआ और मुनिश्री के मंगल प्रवचन हुए।
मुनिश्री ने बताया कि पुण्य को हेय मत कहना ।पुण्य के फल को भोगने के लिए हेय कहना। जिस प्रकार मुठ्ठी में रखा जहर मृत्यु का कारण नहीं है, वह तो ज्ञेय है, प्रेमेय है पर मुख में रखा जहर मृत्यु का कारण अवश्य है। ऐसे ही सम्यग्दृष्टि जीव निर्विकल्प ध्यान में विराजे योगी भले ही पुण्य क्रिया करते न दिखे पर आश्रव पुण्य का ही होता है। तेरहवें गुणस्थान तक आश्रव जारी है भले एक समय का हो पर है।
मुनिश्री ने बताया समयसार की व्याख्या और प्रवचनसार की व्याख्या में महान अंतर है ।प्रवचन सार में पञ्च परमेष्ठि की वंदना कर रहे है, समयसार में सिद्ध की वंदना की जा रही है। जो आत्मा को पवित्र करे उसका नाम पुण्य है। यहाँ पुण्य पर जोर दे रहे है जबकि समयसार में पुण्य को हेय कहा गया है। पुण्य से मुझे मनुष्य गति की प्राप्ति हुई, पुण्य से मुझे शरीर मिला, पुण्य से इन्द्रियो के भोग मिले, और पुण्य से ही इन्द्रियो के भोगो को भोग सकेंगे। जब भोग भोगेंगे तब पाप का आश्रव होगा ,जब पाप का आश्रव होगा तो मेरी दुर्गति होगी तो फिर ऐसा पुण्य भला नहीं है। ऐसे पुण्य की क्या आकांक्षा करना? ऐसा समयसार की दृष्टि में जानना चाहिए ।भैया! पुण्य से भोगो का मिलना, पुण्य से देह मिलना, पुण्य से इन्द्रीय मिलना इन सब की प्राप्ति होने पर भोग नहीं करना ये तेरे पुण्य का काम नहीं है ,ये तेरे पुरुषार्थ का काम है। यदि भोग करता है तो तेरी दुर्गति नियत है और द्रव्य का भोग न करके पुण्य का योग में बदल देता है तो नियम से तेरी सुगति होती है।
मुनिश्री ने कहा जो नरक में जाने के उत्कृष्ट साधन है वे ही उत्कृष्ट साधन सिद्ध बनने के है। कर्म भूमिया, उत्कृष्ट सघनन, उत्कृष्ट ध्यान ये सिद्ध बनने के साधन है। और यही नरक जाने के साधन है। जीव इन साधनों को प्राप्त करके आर्त रौद्र ध्यान करता है तो वह नरक में चला जायेगा। और यदि इस सामग्री को प्राप्त करके उत्कृष्ट शुक्ल ध्यान करता है , श्रेणी का आरोहण करता है तो सिद्ध बन जायेगा। साधन ,साधन है और कारण, कारण है। बहिरंग साधनों को जितना अच्छा ,स्वक्ष रख रहे हो उतना अंतरंग साधनों को स्वक्ष कीजिये। अंतरंग साधन आपके परिणाम है ,बहिरंग साधन स्वक्ष मिल भी जाये लेकिन अंतरंग साधन स्वक्ष नहीं है तो सिद्धि नहीं मिलेगी।
मुनिश्री ने बताया श्रेष्ठ गुरु मिल गये, जिनवाणी मिल गई, जिनदेव मिल गए ,निरोग शरीर मिल गया लेकिन परिणाम स्वक्ष नहीं रख पाए ,अंतरंग साधन अर्थात आपके परिणाम यदि स्वक्ष नहीं है तो सिद्धि नहीं मिलेगी। सत्संगति भी सत्पुरुष के लिए है ।असत पुरुष के लिए कोई सत्संगति नहीं है। जिस संगति से गति सुगति हो जाये वही सत्संगति है। यदि आप कहे की पुण्य भला नहीं है तो बो अपेक्षा भिन्न है। सत्संगति करने से पुण्य का अर्जन होता है और वही पुण्य परम्परा से मोक्ष का कारण बनता है। हम जब साधु की संगति में आते है तो वह संगति ही हमे जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करना ,पूजन करना, जाप करना, स्वाध्याय करना ,गुरुओं को आहार देना, विहार करवाना ,विधान ,पञ्च कल्याणक आदि करवाना ,अनेको धार्मिक अनुष्ठान में लगाना उसी सत्संगति का ही प्रभाव है, और वह पुण्य का अर्जन कराती है। और पुण्य कभी बेकार नहीं जाता । समयसार की दृष्टि कहती है कि पुण्य भी हेय है लेकिन प्रवचनसार की दृष्टि कहती है अपेक्षाकृत पुण्य भी परम्परा से मोक्ष का कारण है। क्योंकि सत्संगति से ही पुण्य का अर्जन हो रहा है और वह पुण्य का अर्जन ही आपको देव- शास्त्र -गुरु का सांन्निध्य दिलाएगा, और देव-शास्त्र- गुरु का सांन्निध्य ही आपको नियम, व्रत, संयम दिलाएगा, और नियम -व्रत- संयम ही आपके कर्मों की निर्जरा कराएगा ,और कर्मो की निर्जरा ही आपको मोक्ष पद दिलाएगी। इस अपेक्षा से पुण्य भी मोक्ष जाने में सहकारी होता है। जैन दर्शन अनेकांतबाद है ,एकान्त पक्ष कुछ भी नहीं है। किसी अपेक्षा से पुण्य को हेय कहा गया तो किसी अपेक्षा से पुण्य को बधेय ही कहा गया, इसलिये देव- शास्त्र- गुरु का सांन्निध्य मेला तो सत्संगति कीजिये, पुण्य का अर्जन कीजिये व अपनी आत्मा को परमात्मा बनाइये।🌼🌼
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