श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 02-02-2018 दिन- शुक्रवार
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तीर्थंकर दीक्षा लेते ही मौन हो जाते है.........✍🏻
श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, नई बस्ती ,ललितपुर (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज का मंगल आगमन हुआ और आचार्य श्री पारशसागर जी मुनिराज से मंगल मिलन हुआ। धर्म सभा में मुनिश्री ने अपने मंगल प्रवचन देते हुए कहा की मुनि बनने के लिए मौन रहना बहुत जरूरी है। मुनि को यदि अष्ट प्रवचन मात्रिक का ज्ञान हो जाये तो वह निर्वाण को प्राप्त कर सकता है। मुनि बनने के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता ,विषय कषाय छोड़ कर के मौन होकर बैठना पड़ता है ,उसी का नाम मुनि है। बस इतना सीख लेना की कुछ भी नहीं सीखना। समझना जब तक तुम आगम नहीं सीख पा रहर हो तो अनागम को भी मत सीखना ।बस अपनी समितियो और गुप्तियों का पालन करते रहना और आत्म साधना में लीन रहना आपका कल्याण हो जायेगा।
मुनिश्री ने बताया काल थोड़ा सा है। इस युग की बुद्धिया ,दुर्बुद्धिया हो चुकी है। इसलिए मात्र इतना सीख लो जिससे जन्म -मरण का क्षय हो जाये इससे अधिक सीखने से क्या प्रयोजन।
मुनिश्री ने बताया तीर्थंकर भगवान दीक्षा लेते ही मौन ले लेते है। एक बच्चे ने प्रश्न पूछा की- मुनिराज तीर्थंकर दीक्षा लेते ही मौन क्यों ले लेते है? और उस परम्परा का निर्वाह मुनि क्यों नहीं कर रहे है? भैया! तीर्थंकर गर्भ से तीर्थंकर नहीं होते ,जन्म से तीर्थंकर नहीं होते, दीक्षा लेने के बाद भी तीर्थंकर नहीं होते, तीर्थंकर प्रकृति के बंधक तो हो पर उसका उदय तेरहवें गुणस्थान में होगा। जब तक कैवल्य ज्ञान नहीं होता तब तक तीर्थंकर प्रकृति का उदय नहीं होता। फिर ये कल्याणक किसके हो रहे है? ये कल्याणक वैसे ही हो रहे है जैसे सूर्य का उदय होने से पहले ही प्रकाश फैल चुका होता है ,किरणे बहुत देर बाद आती है। तो कैवल्य की किरणे प्रकट होगी उसके पहले प्रकाश फैल गया पुण्य का, जिससे गर्भ कल्याणक, जन्म कल्याणक, दीक्षा कल्याणक ये तीन कल्याणक मनाये गये। लेकिन तब भी तीर्थंकर प्रकृति का प्रगटिकरण नहीं हुआ, पर आस्थावानो की आस्थाये आपके प्रति गर्भ से ही लग चुकी है। क्योंकि आपके गर्भ में आने के पूर्व ही रत्नों की वर्षा प्रारम्भ हो गई, गर्भ में आते ही जन्म के पुर रत्नों की वृष्टि हो रही है इसलिए प्रामाणिक पुरुष है।
मुनिश्री ने बताया हम उतना ही बोलेंगे जितना आगम में होगा उससे आगे नहीँ बोल पाएंगे ।यदि आज कोई साधु प्रमाण देते है तो प्राचीन आचार्यो के प्रमाण देते है। आचार्य पुष्पदंत भूतबलि ,आचार्य समन्तभद्र स्वामी, आचार्य अकलंक देव स्वामी, आदि उन्होंने जो लिखा है वह भगवान की वाणी है, केवलज्ञानी की वाणी है। उन्होंने वही लिखा है जो भगवान ने कहा है ।आज यदि में कुछ बोलता हूँ तो उनका प्रमाण देता हूँ। यदि कोई व्यक्ति मुनि न हो और कुछ बोले तो कोई विकल्प नहीं, लेकिन मुनि बन कर कुछ भी नहीं बोल सकते मात्र आगम बोलना चाहिए क्योकि आपकी बात को प्रमाणित माना जाता है। किसी मुनि ने अप्रमाणित बोल भी दिया हो तब भी आपके मन में यही आता है कि गुरु ने कहा है। लेकिन कब तक? जब तक आगम नहीं दिखाया। जब किसी ने कहा कि देखो भाई देखो शास्त्र में ऐसा लिखा है तब भी कहता है कि -नहीं मेरे गुरु ने जो कहा वही मानता हूँ। तो उसी क्षण से वह मिथ्यादृष्टि है।
मुनिश्री ने बताया तीर्थंकर दीक्षा लेते ही मौन क्यों ले लेते है? आपकी श्रद्धा में प्रमाण है ,विश्वास में प्रमाण है परन्तु जब तक क्षायिक ज्ञान नहीं हो जाता है तब तक प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं होते। क्षयोप्समिक ज्ञान में सत्य नहीं होता यदि महावीर की देशना केवलज्ञान के पूर्व होती ,और क्षदमस्त अवस्था में कुछ कहते और कैवल्य के बाद और कुछ दिखाई देता तो कहते की बदल जाओ तो आप कहते की- नहीं अब हम कैसे बदले? सारी भीड़ सत्य का प्रमाण नहीं है ।सत्य तो सत्य है इसलिए तीर्थंकर केवलज्ञान से पूर्व क्षदमस्त अवस्था में मौन ले लेते है। जब तक पूर्ण ज्ञान नहीं हो जायेगा तब तक मैं कुछ नहीं बोलूंगा।
मुनिश्री ने दूसरे प्रश्न का समाधान देते हुए कहा -उस परम्परा का निर्वाह आज के मुनि क्यों नहीं करते? इस बात को बताते हुए कहा कि तीर्थंकर को मौन लेना अनिवार्य था क्योकि उनके पास किसी क्षायिक ज्ञानी का ज्ञान नहीं था,वह जो कुछ कहते वह प्रमाणित हो जाता। क्षायिक सम्यग्दृष्टि होने से क्षायिक ज्ञान नहीं हो जाता। क्षायिक सम्यक श्रद्धा का विषय है ,क्षायिक ज्ञान केवलज्ञान का विषय है, तीर्थंकर के काल में कोई क्षायिक ज्ञानी का ज्ञान नहीं होता है इसलिए वे मौन लेते है ।और आज के पंचमकाल में मुनियो को मौन न लेकर प्रवचन करना उनका धर्म है क्योंकि इनके पास केवली की वाणी है ।केवलज्ञानी की वाणी की व्याख्या कर सकते है इसलिए मौन की जरूरत नहीं है, बल्कि इनको तो बोलना ही चाहिए। लोग विपर्याश करते रहे इर तुम मौन लेकर बैठ जाओ ,ये आपका मौन नहीं धर्म का नाश है।
मुनिश्री ने बताया 'ज्ञानारणव ग्रन्थ' में कहा गया है जहाँ धर्म का नाश हो रहा हो, क्रियायों का ध्वंश हो रहा हो ऐसे स्थान पर कोई तुमसे न भी पूछे तो भी बोलना चाहिए ,सिद्धान्त के प्रकाश के लिए। केवली की परम्परा से जो विद्वान् है ,जो पूर्वाचार्यो के अनुसार व्याख्यान करता है उस विद्वान का ज्ञान भी प्रमाण है। और यदि मुनि आचार्य होकर के केवली की वाणी से पृथक व्याख्यान करते है तो उनके वचन भी अप्रमाण है।🍂🍂
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