श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 01-02-2018 दिन- गुरूवार
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आप में वंदनीयपना होगा तो वंदना स्वमेव होगी.......🖋
श्री दिगम्बर जैन अतिशय क्षेत्र, क्षेत्रपाल जी ,ललितपुर (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज विराजमान है ।मुनिश्री ने प्रवचन देते हुए बताया कि आपके अंदर गुण होना चाहिए ।जिसके पास गुण है वह वंदनीय है ,पुज्यनीय है, आदरणीय है, सम्मानीय है। बस आपमें वंदनीयपना होगा तो वंदना स्वमेव होगी ।पर की वंदना से वंदनीय नहीं होगा ,निज गुणों से वंदनीय होगा। क्या तीर्थंकर भगवन्तों ने सम्पूर्ण विश्व से अपनी वंदना की आकांक्षा की ? क्या आकांक्षा करने वाला तिर्लोक का वंदनीय हो सकता है ? और तीन लोक के नाथ, तीन लोक के सम्पूर्ण जीवो से क्या वंदनीय है? भाई !ये भक्ति का बहुमान है ।तीर्थंकर भगवान तिर्लोक वंदनीय तो है पर तीन लोक के जीव वंदना करे ये नियत नहीं है। क्योंकि वर्धमान के सामने ही पाँच लोग और थे जो अपने आपको तीर्थंकर कहते थे। उन्होंने कहा वंदना की? यदि वंदना कर लेते वो तो उनकी अहंकार की क्रुता को घात पहुँचता।
मुनिश्री ने बताया यदि आप आचार्य, उपाध्याय ,साधु हो गये और आप दूसरे साधु को नमस्कार नहीं कर रहे हो ,इससे आपकी साधुता का घात नहीं है अहंकार का घात होता है। साधुता का घात कभी नहीं होता। पिच्छि उठाकर वंदना -प्रतिवन्दना से साधुता का घात नहीं होता है क्योंकि एक साधु दूसरे साधु को नमोस्तु, प्रतिनमोस्तु करता ही है। पर गुरुता का घात होता है। क्या मरीचि नहीं जानता था कि ऋषभदेव महान है? क्या बुद्ध संजय विल्लठी पुत्र मख्खली गोसल नहीं जानते थे की वर्धमान स्वामी श्रेष्ठ है? जानते थे ये लोग ।भीतर से मानते भी थे पर बाहर में मान नहीं पाते थे ,क्योकि मान मानने नहीं देता ।भाई! आप झुकना तो जानते हो पर झुकने नहीं देता है। वह कोई दूसरा नहीं होता है वह एक मात्र भीतर का मान होता है नहीं झुकने देता, तोड़ कर ही छोड़ेगा।
मुनिश्री ने कहा जिसके अन्तस् में आर्जव ,मार्दव धर्म का बन्ध होगा वही विनय कर सकेगा ।जिसका आर्जव, मार्दव धर्म नष्ट हो चूका है वह कभी परमेष्ठि की विनय के भाव नहीं रखता है। जिस जीव को निज पर करुणा दया होगी वही परमेष्ठि के चरणो में सिर टेक पायेगा। और निज का शत्रु होगा वह कभी परमेष्ठि को नमस्कार वंदना नहीं कर सकता है।
मुनिश्री ने बताया परमेष्ठि के पाद मूल में नमस्कार, वंदना करने मात्र से जो विशुद्धि होती है उससे निरक्ति, निकांचित कर्मो का क्षय होता है। पञ्च परमेष्ठि के पाद मूल में अनादि के मिथ्यात्व के टुकड़े होते है ।जिन बिम्ब दर्शन, धर्मोपदेश, जाती स्मरण, ये मनुष्य पर्याय में और तिर्यंच पर्याय में सब में दर्शन उतपत्ति में बहिरंग साधन है। जो जिन बिम्ब है वो 2 प्रकार के है- चेतन जिन बिम्ब ,अचेतन जिन बिम्ब ।जिसमे अर्हंत प्रतिमायें अचेतन जिन बिम्ब है ,और निरग्रंथ मुनीश्वर चेतन जिन बिम्ब है।' जिन बिम्ब राण मयं' अर्थात जो ज्ञानमयी आचार्य भगवन्त की आत्मा है वही जिन बिम्ब है ,ऐसा कुन्द कुन्द स्वामी ने 'अष्ट पाहुड' ग्रन्थ में लिखा है।
मुनिश्री ने बताया आचार्य भगवन स्वयं आचार्य परमेष्ठि है पर साधु की भी वंदना कर रहे है। आचार्य भगवन वीर नन्दी स्वामी कह रहे है कि रिद्धि ,गारव आदि दोष रहित ;पिच्छि सहित है अंजुलि जिसकी ऐसे सुख विजन रूपी कमल के लिए सूर्य के समान आचार्य के द्वारा प्रति वंदना करना चाहिए। आचार्य स्व दीक्षित मुनि को भी प्रति नमोस्तु नहीं करेंगे और यदि यह मानेंगे की मैं छोटा हो जाऊँगा तो फिर आप महा मंत्र णमोकार भी नहीं पढ़ पाओगे। पांचो पदों को भी स्वीकार नहीं कर पाओगे। आपको 'णमो लोय सव्व साहुणम' और 'णमो उवझायाणम' पद  छोड़ना पड़ेगा। यहाँ लोक प्रचलन को आप नहीं मानना आगम को ही ,आगम स्वीकारना।
मुनिश्री ने बताया यदि कोई आचार्य अन्य आचार्य ,मुनि को नमोस्तु -प्रतिनमोस्तु न करे ।कोई मुनि अन्य आचार्य को नमोस्तु न करे ,कोई मुनि अन्य मुनि को नमोस्तु न करे तो आप उसे आगम नहीं मान लेना ।यह उनकी अपनी व्यवस्था है ,निजी भाव है लेकिन आगम की व्यवस्था तो ये है जो आचार्य रविषेण स्वामी ने पद्म पुराण ग्रन्थ में लिखा है -'     साधो: संगमनाल्लोके न किंचिद दुर्लभं भवेत् ।
बहुजन्मसु न प्राप्ता, बोधिर्येनाधिगम्यते ।।101।।
अर्थात जो बोधि अनेक जन्मो में भी प्राप्त नहीं होई वह साधु समागम से प्राप्त हो जाती है। इसलिए कहना पड़ता है कि साधु समागम से संसार में कोई भी बस्तु दुर्लभ नहीं रह जाती।
आगे कहा है-
साधुरूपं समालोक्य न मुञ्चत्यासनं तु यः।
दृष्ट्वाअपमन्येत  यस्यच स मिथ्यादृष्टि रुच्यते।।34।।
अर्थात जो मुनि को देखकर आशन नहीं छोड़ता है तथा देखकर उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है ऐसा आगम में वर्णन दिया गया है। इसलिए साधु कोई भी हो नमोस्तु -प्रतिनमोस्तु का विधान मूलाचार में दिया गया है। उस मूलाचार के अनुशार सभी साधु उनका पालन करते हुए आपस में विनय करते है। जैसे श्रावक ,श्रावक की विनय करता है जय जिनेन्द्र कर के ,वैसे ही मुनि ,मुनि की विनय करते है नमोस्तु प्रतिनमोस्तु कर के यही आगम का विधान है। हम स्वयं वंदनीय बने ,वंदना स्वमेव हो जायेगी क्योकि चहरे की पूजा हमारा जैनागम नहीं करता ,न ही नाम की पूजा करता है ,हमारे यहाँ गुणों की वंदना है जिसने भी गुण धारण कर लिए वो वंदनीय हो गया और उसकी वंदना होने लगती है।
🌹प्रवचन के पश्चात मुनि श्री के समग्र ग्रंथ का विमोचन भी क्या गया। मुनि श्री का कल प्रातः 8 बजे श्री आदिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, नई बस्ती, ललितपुर, उत्तर प्रदेश के लिए होगा।
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