श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 25-02-2018 दिन -रविवार
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ध्यान और अध्ययन मुनियों का, और दान ,पूजन श्रावको का मुख्य कर्तव्य है.........🖊
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, अशोकनगर (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने धर्म सभा को सम्बोधित करते हुए कहा कि महावीर भगवान ने 2 धर्मो का उपदेश दिया ।श्रमण धर्म और श्रावक धर्म ।श्रमण धर्म को पालन करने के लिए षड कर्तव्य बताये ।उसी तरह श्रावको को अपने धर्म का पालन करने के लिए षड कर्तव्य बताये। मुनिराजों के- लिए समता, वंदना, स्तुति ,प्रतिक्रमण, प्रत्यख्यान और कायोत्सर्ग एवं श्रावको को - देव पूजा, गुरु उपास्ति, स्वध्याय ,संयम, तप और दान इनका पालन करने के निर्देश दिए।
🌹मुनिश्री ने बताया महावीर भगवान के मुख से आने के बाद आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी ने चिन्तन किया होगा की पंचमकाल में श्रावक और साधु के अन्दर शिथलाचारी हो सकती है ,सघनन न होने के कारण इसलिये रयणसार ग्रन्थ में दोनों के कर्तव्यों को 2- 2 में समाहित कर दिया ।मुनियो का मुख्य धर्म बताया- ध्यान और अध्ययन ।और श्रावको का मुख्य कर्तव्य बताया- दान और पूजा ।ये मुख्य धर्म है इनके बिना श्रावक, श्रावक नहीं और मुनि ,मुनि नहीं।
🌹मुनिश्री ने बताया -"ध्यानाग्नि सर्व कर्माणि ,भस्मात कुरुते क्षणात" अर्थात ध्यान रूपी अग्नि से करोड़ो जन्मो के कर्म भी जल कर भस्म हो जाते है। छोटा सा ध्यान भी वह ध्यान एकाग्रता पूर्वक हो ।हाँथ पर हाँथ रख कर बैठ जाना, पद्मासन लगा लेना, आँखे बन्द कर लेना ध्यान नहीं है। जहाँ पर मन -वचन- काय एकाग्र हो जाये वही एकाग्र कहलाता है। जिस प्रकार एक छोटी सी माचिस की तीली साल भर से जोड़ी हुई कपास को जलाने में क्षण भर लगाती है उसी प्रकार थोड़ा सा ध्यान हमारे करोड़ो जन्मो के कर्मो को जला कर क्षण भर में भस्म कर देता है ।इसलिए आचार्य कुन्द कुन्द स्वामी ने रयणसार में कहा है- "अज्झयेणमेव झाणम्" अध्ययन ही ध्यान है ।जब आप स्वध्याय करते है उस समय में वचन काय तीनो एक हो जाते है उसी का नाम ध्यान है। और भी कहा है- "स्वाध्याय परमं तपः" अर्थात स्वाध्याय ही परम तप है। इसलिए श्रावक हो या साधु स्वध्याय जरूर करना चाहिए। अध्ययन करने से ध्यान की शिद्धि होती है, ध्यान की  सिद्धि से कर्मो की निर्जरा होती है और कर्मो की निर्जरा से निर्वाण पद की प्राप्ति होती है।
🌹मुनिश्री ने बताया श्रावको को भी अपने दो कर्तव्यों का पालन तो करना ही चाहिए ।दान और पूजा। जिस समय आप पूजा करते है तो देव- शास्त्र -गुरु की पूजा की ,जिनवाणी से पूजा की इसमें आपके देव पूजा, गुरु उपास्ति और स्वाध्याय तीन कर्तव्यों का पालन हो गया। जितने समय आप पूजा करते हो उस समय कुछ खाते पीते नहीं है तो संयम का पालन हो गया। पूजा या तो खड़े होकर करेंगे या बैठ कर करेगे तप हो गया और एक थाली में से दूसरी थाली में द्रव छोड़ेंगे दान हो गया। उसी प्रकार जब आप किसी मुनिराज को दान करने जाते है ,आहार दान देते है ।  मुनिराज पञ्च परमेष्ठि में आते ह् तो वो एक देव हो गए ,साक्षात गुरु है इसलिये गुरु हो गए, उनका पाद प्रक्षालन कर लिया ,उनकी पूजन कर ली यही देव पूजा, गुरु उपास्ति है। जिस समय आप आहार देते है मन में णमोकार मंत्र का पाठ करते है यही तो स्वध्याय है। जिस समय आहार देते है उस समय कुछ खाते पीते नहीं यही तो संयम है। खड़े होकर तप करते है आहार देने में और मुनिराज की अंजुलि में ग्रास रखते है वो दान कहलाता है। कहने का तातपर्य है की आप देव पूजा और दान करते है तो अपने छः कर्तव्यों का पालन कर लेते है। मुनिराज जब अपने कर्तव्य का पालन करते है तो ध्यान की अवस्था में वो अपने अठाइस मूलगुण, 84 लाख उत्तर गुण, 18000 शील सभी का पालन कर लेते है ।तो श्रावक हो या साधु अपने कर्तव्य का पालन करना ही चाहिए।
🌹मुनिश्री ने बताया इन कर्तव्यों का पालन करके श्रावक पुण्य का अर्जन करता है ।एक बात याद रखना जैनागम बड़ा सूक्ष्म है। जैन धर्म कहता है पाप की क्रियाओं में कृत- कारित- अनुमोदना का फल बराबर मिलता है ।जैसे श्री पाल ने मुनि निन्दा की और 700 मित्रो ने अनुमोदना की तो सभी को कुष्ट रोग हो गया था ।लेकिन पुण्य की क्रिया में बराबर फल नहीं मिलता हमारे जैसे भाव होते है, जैसी विशुद्धि होती है तदरूप फल की प्राप्ति होती है। जंगल में मुराजो का आहार हुआ ,चार जानवरो ने अनुमोदना की ,दान देने के प्रभाव से वो राजा देव पर्याय को प्राप्त होता है और वह चार जानवर भी देव पर्याय को प्राप्त हुए ।वहाँ पुण्य की क्रिया का बराबर फल मिला ,क्यों? क्योकि अनुमोदना करने बाला सामर्थ्य नहीं था देने में इस कारण से उनको फल बराबर मिला। यदि आप समर्थ्य है तो अपने हाँथ से देना चाहिए। अपने हाँथ से पूजा करे, अभिषेक करे ।स्व हस्थ से दिया गया दान ही सार्थक होता है ।यदि आप देने में समर्थ्य नहीं है तब अनुमोदना करे तब आपको बराबर फल मिलता है। इसलिए पुण्य पाप की क्रिया को समझे और कर्तव्य का पालन करे।
🌹संचालक जी ने बताया मुनिश्री के पावन सांन्निध्य में श्री शांतिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, शांतिनगर ,त्रिकाल चौबीसी में भगवान बाहुबली का मस्तकाभिषेक किया गया जिसमें बहुत से श्रावको ने भगवान का मस्तकाभिषेक किया। बताया गया कि पहली बार उस प्रतिमा का मस्तकाभिषेक हुआ ।सभी लोगो ने वहाँ पुण्य का अर्जन किया।
🌹मुनिश्री का अभी कुछ दिन का प्रवास श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, अशोकनगर में ही रहेगा ।वही पर मुनिश्री का सातवां  संयमोत्सव अर्थात मुनि दीक्षा महोत्सव मनाया जायेगा। 27 फरवरी ,प्रातः 8 बजे से आप सभी भी आमंत्रित है। आइयेगा और गुरु का आशीर्वाद प्राप्त करके जीवन को धन्य कीजियेगा ।🖊