श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 23-02-2018 दिन- शुक्रवार
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संसार की सबसे बड़ी तपस्या स्वार्थ त्याग की होती है.......🍂
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, अशोकनगर (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने मेरी भावना पर प्रवचन देते हुए बताया कि दिगम्बर साधु सभी प्रकार के परिग्रहों से रहित होते है। तन पर एक धागा भी नहीं होता है ,दिगम्बर भेष धारण किये हुए ,पिच्छि कमण्डल को धारण करने बाले, केशलोंच करने बाले, पद विहार करने बाले, खड़े होकर 24 घण्टे में एक बार भोजन पानी ग्रहण करने बाले, कठिन साधना को बिना खेद खिन्नता के चर्या का पालन करते है।
🍂मुनिश्री ने बताया कवि ने कहा है-' विषयो की आशा नहीं जिनके ,साम्य भाव धन रखते है ;निज पर के हित साधन में जो, निस दिन त्तपर रहते है।। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते है; ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुःख समूह को हरते है।।'
🍂मुनिश्री ने बताया सच्चे गुरु अपनी साधना में संलग्न रहते है।निश्वार्थ भावना में वह दिगम्बर साधु सभी को अपना आशीर्वाद प्रदान करते है, धर्म का उपदेश देते है लेकिन सभी को एक सा उपदेश नहीं देते एक व्यक्ति जब आचार्य भगवन के पास आते है वह हिंसा करता है और आचार्य भगवन से धृमः की परिभाषा पूछता है तो आचार्य भगवन कहते है -'अहिंसा परमो धर्मह्' दूसरा व्यक्ति आता है उसमें दया नाम मात्र नहीं थी वह व्यक्ति आचार्य भगवन से धर्म की परिभाषा पूछता है तो आचार्य भगवन कहते है -' धम्मो दया विशुधो' ।तीसरा व्यक्ति आया जो व्यक्ति जैन कुल में जन्म लेकर देव दर्शन नहीं करता था उसने आकर आचार्य भगवन से धर्म की परिभाषा पूछी तो आचार्य भगवन ने कहा -'दंशण मूलो धम्मो' अर्थात धर्म का मूल यदि कोई है तो वो दर्शन है। हमे जिन दर्शन प्रतिदिन करना चाहिए ।जिन दर्शन से होता है निज दर्शन ,निज दर्शन से होता है सम्यग्दर्शन, और सम्यग्दर्शन से सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र हुए कर्मो की निर्जरा होकर मोक्ष की प्राप्ति होती है तो प्रतिदिन हमे जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करना चाहिए ।दर्शन कर भगवान के सामने माँग मत रखे, अपेक्षा मत रखे ,निस्वार्थ भावना से भगवान की भक्ति करे, हम भगवान के सामने याचना करते है, भगवान के सामने याचना नहीं प्रार्थना करो क्योकि याचना करने बाला भिखारी होता है और प्रार्थना करने बाला पुजारी होता है ।भगवान के पास एक सम्यग्दृष्टि जाता है और एक मिथ्यादृष्टि जाता है दोनों ही भगवान से प्रार्थना करते है और माँगते है ,मिथ्यादृष्टि कहता है -भगवन ! जो आप भूत काल में थे बो मैं वर्तमान में हो जाऊ। भगवान भूतकाल में राजा महाराजा थे ,चक्रवर्ती थे ,बहुत वैभव था इसलिए मिथ्यादृष्टि उस वैभव को मांगता है। और सम्यग्दृष्टि कहता है - भगवन ! जो आप वर्तमान में है बो मैं भविष्य में हो जाऊ ।वर्तमान में भगवन अनन्त चतुष्टय के धारी है। ऐसा अनन्त चतुष्ठय भविष्य में मुझे प्राप्त हो। भगवान के पास जाकर यदि कुछ मांगना है तो इतना मांगो -मुझे एक समय के लिए निष्कर्म कर दो। जिस समय यात्मा एक समय के लिए निष्कर्म हो जायेगी उसी समय बो सिद्ध अवस्था प्राप्त कर लेगी तो भगवान के दर्शन निःस्वार्थ भावना से करना चाहिए ।
🍂मुनिश्री ने बताया की वैसे तो श्रावक को अपने छः कर्तव्यों का पालन करना चाहिए ।यदि वो प्रतिदिन अपने कर्तव्यों का पालन नहीं कर पा रहा तो कम से कम दान और पूजा इन दो कर्तव्यों का पालन कर ले। इतना नहीं कर पता तो स्वाध्याय कर ले ,स्वध्याय नहीं कर पाता है तो जाप कर ले, जाप नहीं कर पाता है तो पूजन कर ले, पूजन नहीं कर सकता है तो प्रतिदिन प्रक्षाल अभिषेक कर ले, अभिषेक नहीं कर सकता है तो कम से कम जिनेन्द्र भगवान के दर्शन तो कर ही ले और अगर दर्शन भी नहीं कर सकता है तो शर्म के मारे चुल्लू भर पानी में अपना मुह धो लेना चाहिए। जैन कुल में जन्म लेकर जिनेन्द्र भगवान के दर्शन करना अनिवार्य है ।लेकिन जो व्यक्ति जैन कुल में जन्म लेकर भी दर्शन नहीं करता फिर भी उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिए ।क्योंकि बो नाम का जैन कब हमारे जीवन में काम आ जाये ,हमारे धर्म की रक्षा करने के लिए आगे आ जाये ।
🍂मुनिश्री ने बताया चौथा व्यक्ति आचार्य भगवन के पास आया और कहता है- भगवन! धर्म की परिभाषा बताइए ।वह व्यक्ति प्रतिदिन दर्शन करता था, पूजन करता था, जाप करता था आचार्य भगवन ने उसे देखा और कहा- 'चारित्रम खलू धम्मो' निश्चय से चारित्र धारण करना धर्म है। तभी वहाँ बैठे मुनिराज ने आचार्य भगवन से कहा- भगवन! हमे धर्म की परिभाषा बताइए। तो आचार्य भगवन ने उन मुनिराज से कहा- 'बस्तु स्वभावो धम्मो' बस्तु का जो स्वभाव है ,वो धर्म है। कहने का मतलब जैसे -जैसे व्यक्ति बदल जाते है वैसे- वैसे धर्म की परिभाषा बदल जाती है ।सभी के लिए एक सी परिभाषा नहीं होती। बो मुनिराज स्वार्थ को त्याग करके  खेद खिन्नता रहित होकर तपश्या करते ।उससे बड़ी तपस्या स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या बताई है। घर परिवार छोड़ना, माता -पिता छोड़ना, भाई- बहन छोड़ना ,रिश्तेदार कुटुम्बी जन छोड़ना ,धन -दौलत छोड़ना, जमीन जायदाद छोड़ना ये की कठिन तपस्या नहीं है। नग्न रहना कोई कठिन तपस्या नहीं है ।संसार में सभी जीव नग्न है मात्र विश्व में रहने बाले सात अरब मनुष्य ही कपड़े पहनते है बाकी अनन्त जीव नग्न ही रहते है। नग्न रहना कोई बड़ी बात नहीं है, कोई तपस्या नहीं है, भूखे रहना कोई तपस्या नहीं है, पैदल चलना भी कोई बड़ी तपस्या नहीं है, इन सब से बड़ी कोई तपस्या है तो बो स्वार्थ के त्याग की तपस्या है।
🍂मुनिश्री ने बताया संसार में सभी प्राणी स्वार्थ में जी रहे है ।पिता को बेटे से स्वार्थ है, बेटे को पिता से स्वार्थ है, अध्यापक को बच्चे से स्वार्थ है, मालिक को नोकर से स्वार्थ है, नोकर को मालिक से स्वार्थ है पूरी दुनिया स्वार्थ में जी रही है जिस दिन स्वार्थ का त्याग कर दिया समझ लेना सबसे बड़े तपस्वी आप ही है और बिना खेद खिन्नता से रहित साधु उस स्वार्थ त्याग की तपस्या करते है ।और वही साधु ज्ञानी है और वही साधु जगत के  दुःख को दूर करते है अपना कल्याण करते है और दूसरे का कल्याण करते है उन्ही को ही ज्ञानी कहा गया है जो विषयो की आशा नहीं रखते है, जो समता रूपी धन अपने पास रखते है ,जो निज पर के हित साधन में जो रात दिन लगे रहते ह् और स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या को करते है वही साधु सच्चे ज्ञानी है, वही साधु समस्त जगत के दुःखो को हरण करने बाले है, वही साधु मोक्ष में जाने बाले और हमे पहुचाने बाले है।✍🏻✍🏻