श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 21-02-2018 दिन- बुधवार
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जब हम शुभ उपयोग में होते है तो आत्मा भी शुभ उपयोग तन्मय में होती है..........🖋
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, अशोकनगर (म. प्र.) में श्रमण श्री विभानियंसगर जी मुनिराज ने प्रवचनसार ग्रन्थ की व्याख्या करते हुए बताया कि आचार्य कुन्द कुन्द भगवन की प्रज्ञा बहुत ही महान है जो उन्होंने ऐसे शास्त्रो को हमे उपहार स्वरूप में दिया और उस ग्रन्थ की व्याख्या आचार्य श्री विशुद्धसागर जी मुनिराज ने अपने मुखारबिन्द से किया। बड़ा ही सरल विवेचन किया है। उसी का ही वाचन यहाँ पर चल रहा है। प्रवचनसार ग्रन्थ में बताया गया है जो द्रव्य जिस काल में जिस भाव से परिणत होता है उस काल में उस भाव से वह तन्मय भूत हो जाता है। जैसे लोहे का पिण्ड अग्नि में होता है तो अग्निमय हो जाता है ।जैसे अंगारे को स्पर्श करोगे तो हाँथ जलेगा वैसे ही तप्तमान लोहे को स्पर्श करोगे तो हाँथ जलेगा की नहीं जलेगा? जलेगा ।ऐसे ही हे जीव! जब तुम पापो से युक्त होता है तब तेरी आत्मा पाप भूत तन्मय है ,जब तू शुभ उपयोग में होता है उस समय आत्मा शुभ उपयोग में तन्मय होती है, जब शुद्ध उपयोग में होता है उस समय आत्मा शुद्ध उपयोग मयी है और जब अशुभ उपयोग में होता है तो उस समय आत्मा अशुभ उपयोग में तन्मय हो जाती है। उसी प्रकार चारित्र के बारे में समझना चाहिये ।
🌿मुनिश्री ने बताया जैसे लोह पिण्ड अग्नि में होते ही तन्मय भूत हो जाता है ऐसे ही आत्मा ही चारित्र है। जब आत्मा चारित्र गुण को प्राप्त होती है तब आत्मा चारित्र मयी हो जाती है। जब यह आत्मा धर्म में परिणत होती है तब आत्मा धर्म ही है इसलिए आत्मा ही चारित्र है। इससे क्या सिद्ध हुआ? जब आत्मा चारित्र परिणत होती है ,चारित्र को धारण करती है तब आत्मा चारित्र रूप होती है ।जब आत्मा रत्नत्रय से युक्त होती है तब आत्मा रत्नत्रय ही होती है। जब आत्मा रत्नत्रय से मुक्त होती है तब आत्मा पाप मयी ही होती है। इसलिए आगम में 2 प्रकार के जीवों का विधान है -पाप जीव, पुण्य जीव। जब ये जीव पाँच पापो में लिप्त होता है तब पाप जीव कहलाता है। जब ये पापो से विरक्त होकर के पञ्च परमेष्ठि में लवलीन होता है तब जीव पुण्य जीव कहलाता है और जब ये जीव सिद्ध परमात्मा बन जाता है तब ये पुण्य -पाप से रहित हो जाता है। विषय को बहुत अच्छे से समझना और पूरे विषय को निज के लिए समझना।
🌿मुनिश्री ने बताया वैराग्य सरल है तत्व निर्णय पूर्वक चारित्र धारण करना कठिन है। हर साम्प्रदाय में साधु मिलते है । साधु बन गये लेकिन तत्व का निर्णय नहीं कर सके। जितने भी जैन परम्परा में वैराग्य लेने के बाद फिर राग में लिप्त हो रहे है वे न वैरागी बचे है न चारित्रवान बचे है।
🌿मुनिश्री ने बताया द्रव्य द्रव्यत्व भाव में परिणमन करते हुए अपने-अपने स्वभाव का परित्याग किये बिना परिणमनता को प्राप्त हो रहा है जीव ।द्रव्य जिस काल में जैसा परिणाम करता है उस काल में जीव वैसा है। एक भी समय ऐसा नहीं है कि परिणाम भिन्न हो ,परिणामी भिन्न हो ।जैसे परिणाम होगा वैसा परिणामी होगा तन्मय भूत होकर के ।आचार्य अमर चन्द्र स्वामी ने यहाँ लोह पिण्ड का द्रष्टान्त देते हुए समझाया कि जैसे तप्तायमान लोहे का पिण्ड अग्निमय हो जाता है वैसे ही आत्मा जैसे भाव करता है उस काल में आत्मा वैसी है। चारित्र रूप परिणाम है उस समय चारित्र भूत परिणत है, धर्म भूत परिणाम है उस समय धर्म भूत है ।पुनः ध्यान दीजिये जो आपने संयम के बारे में चिन्तन किया है, चारित्र के बारे में चिन्तन किया है वह चारित्र के चिन्तनभूत, चारित्र के ज्ञानभूत परिणति है। वह चारित्र की संयमभूत परिणति नहीं है। क्योंकि अनेक प्रकार के भ्रम अन्तस् में उत्पन्न हो सकते है कि चारित्र का चिन्तवन करने से ,दीक्षा का चिन्तवन करने से , मुनि का चिन्तन करने से क्या तदरूप हो जाऊँगा? ये अनुप्रेक्षा है, ये भावना है ये भाव संयम नहीं है। कुन्द कुन्द स्वामी प्रवचनसार ग्रन्थ की आठवीं गाथा में कह रहे है कि उस काल में वैसा परिणत होता है उसका तातपर्य पर चिन्तन मात्र नहीं है इसका तातपर्य संयम में प्रेवेश करेगा तब वो तन्मय भूत धर्म होगा ।यदि द्रव्य संयम को स्वीकार नहीं किया ,भाव संयम में प्रेवेश नहीं किया तो वह 'चारित्रम खलू धम्मो' नहीं है। द्रव्य संयम और भाव संयम दोनों संयम से युक्त आत्मा है वह आत्मा संयम मय है ,वह आत्मा धर्म मय है, वह आत्मा रत्नत्रय मय है।🖋🖋
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