श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 26-01-2018 दिन- शुक्रवार
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सुखी रहे सब जीव जगत के कोई कबि न घवरावे.......✍🏻
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन अटा मन्दिर, ललितपुर (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने मेरी भावना के ऊपर अपना प्रवचन देते हुए कहा कि आत्मा की उन्नति ,उत्थान जिन गुणों से होती है उन गुण रूपी मोतियों को परस्पर पिरोकर पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने मेरी भावना रूपी माला पिरो दी, उस मेरी भावना के माध्यम से श्रावक अपनी भावना को भाता है ।
मुनिश्री ने बताया सम्यग्दृष्टि ज्ञानी जीव की अन्तरात्म पवित्र ,निर्मल होती है। उनके मन से पावन विचार उत्पन्न होते है। हम अपने भाव कैसे रखे? जैसे भाव रखेंगे आत्मा वैसी होगी ।कहा भी जाता है- 'आत्मा भव नाशनी, और भावना भव वर्धिनी' भावना ही संसार को बढ़ाती है और वही संसार को घटा देती है ।बैठे -बैठे ही व्यक्ति पुण्य आस्रव कर लेता है और पाप आस्रव भी कर लेता है। दोनों ही बैठे है परन्तु दोनों के बैठने में बड़ा अंतर है। एक पवित्र भावना में डूबा है तो दूसरा अपवित्र भावना में डूबा है। एक अच्छे विचारों में खोया है तो दूसरा बुरे विचारों में।
मुनिश्री ने बताया कवि यहाँ कह रहा है -' सुखी रहे सब जीव जगत के' इसका तातपर्य है कि कितनी पवित्र भावना होगी। पुण्य विचार भी बिना पुण्य के नहीं होते । एक भिकारी सड़क पर भीख मांग रहा है और भगवान का नाम ले रहा है उसका भगवान का नाम लेना सार्थक नहीं है क्योंकि वह पैसे कमाने के लिए भगवान का नाम ले रहा है। आचार्य भगवन कहते है पाप अंदर से बुद्धि को भ्रष्ठ कर देता है। व्यक्ति खाली होगा तो जुआ खेलेगा, शराब पियेगा, क्रीड़ा करेगा ,भगवान का नाम नहीं जपेगा, ध्यान नहीं करेगा।
मुनिश्री ने कहा भाव एक समय में एक ही प्रकार के होते है दो प्रकार के नहीं हो सकते। पवित्र मन से, पवित्र दृष्टि से ,पवित्र ही विचार होते है ।पुरे तीन लोक में अनंत जीव है और वो सारे अनंत जीव सुख चाहते है और दुःख से भय खाते है ,ऐसा पं. दौलत राम जी ने छःढाला में लिखा है- 'जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहे दुःख ते भयवन्त' अर्थात जितने भी प्राणी है बे प्रायः सुख ही चाहते है और इसी कल्पना में डूबे रहते है परन्तु वास्तविक सुख की परिभाषा को समझते नहीं है। किसी को प्याश लगी हो ,पानी मिल जाये तो वह अपने आपको सुखी मानता है।भूख लगी हो ,भोजन मिल जाये; वारिष हो रही हो और वह भीग रहा हो ,उसे छाता मिल जाये ; किसी को गर्मी सता रही हो वह पंखे में सुख मानता है; किसी के पास मकान नहीं ,मकान मिल जाये तो सुख मानता है; विद्यार्थी फर्स्ट डिवीजन से पास हो जाये तो अपने आपको सुखी मानता है; कोई नोकरी के लिए परेशान है और उसे नोकरी मिल जाये तो वह अपने आपको सुखी मानता है। ना- ना प्रकार की कल्पनाएं हमारी होती है ,निरंतर सुख की परिभाषा कुछ बदलती रहती है। जितने जीव है उतनी ही सुख की परिभाषा है ,इच्छाओं का नाम वास्तव में सुख नहीं है अपितु इच्छा को रोकने में सुख है। आचार्य भगवन कहते है- ' इक्चान निरोधा तपः' अर्थात इक्छाओ को रोकने का काम तप है।
मुनिश्री ने बताया जो स्वयं सुख के मार्ग पर लगा है वही दुसरो के लिए सुख की भावना भा सकता है जो स्वयं दुःखी है वह दूसरों को सुख क्या दे सकेगा। धर्मात्मा व्यक्ति जैसे अपनी आत्मा का सुख चाहता है वैसे ही वह दूसरों को भी सुखी देखना चाहता है वह तो भावना भाता है ,हे भगवन! मैं भी सुखी रहूं और सारा विश्व भी सुखी रहे ।हम पूजा में शांतिधारा के पश्चात बोलते है -' सम्पूजकाना प्रतिपालकाना, यतीन्द्र सामान्य तपो धनाना; देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञा , करोति शांतिम भगवान जिनेन्द्रा ' जो जितना ऊँचा व्यक्ति होता है उसका हृदय, विचार भी उतना ही ऊँचा होता है। वह सब प्राणियों के उन्नति ,उत्थान के लिए जीता है। जो छोटा है उसका विचार भी छोटा ही होता है।
मुनिश्री ने बताया दुसरों के सुख को छींनने से अपना सुख भी छिन जाता है और दूसरों को सुख देने से अपना सुख बढ़ता है। किसी को भोजन कराओगे तो घटेगा नहीं बढ़ेगा ।एक बार बहुत तेज वारिष हो रही थी एक सेठ जी की दूकान के पास एक गरीब व्यक्ति वारिष से बचने के लिए खड़ा हो जाता है तो वह सेठ उसको धक्का मार कर भगा देता है लेकिन कुछ समय बाद वही सेठ जंगल से निकल रहा था ,रात हो जाती है रुकने का स्थान खोजता है तो उसे उसी गरीब की कुटिया में रहने का अवसर आता है। वह गरीब बिना सोचे समझे सेठ को र्तृ में रुकने का स्थान देता है और वही नहीं उसके बाद 5- 6 व्यक्ति और आते है उनको भी उसमे रुकने का स्थान देता है। जैसे ही सुबह होती है और सेठ को पता चलता है कि ये वही गरीब व्यक्ति है जिसको मैंने धक्का देकर भगा दिया था वह बड़ा शर्मिंदा होता है। वह सेठ सोचता है, कि दुःखी दरिद्री प्राणी धर्म धारण कर सकता है तो क्या मैं नहीं कर सकता? यदि तुम दुसरो का भला करोगे तो तुम्हारा एक दिन भला होगा ,यदि दूसरे का बुरा करोगे तो बुरा तुम्हारा ही होगा ।इन्द्रिय सुख वास्तविक सुख नहीं है अपितु सच्चा सुख आत्मा से होता है। इसलिए सदैव भावना भाओ सुखी रहे सब जीव जगत के ,कोई कभी न घवरावे' ।
मुनिश्री ने बताया जो सज्जन पुरुष होते है वे अपनी आँखों से जगत को सुखी देखना चाहते है ,जिसका हृदय करुणा से भरा होता है वह कभी भी दूसरों को दुःखी नहीं देखना चाहता। दुःखी प्राणी को देखकर पिघल जाना ही धर्म है ।अपने -अपने प्राण सभी को प्रिय होते है वे सब मारे जाने के भय से घवरा रहे है। छोटे से छोटे प्राणी भी अच्छा बुरा समझ लेते है। यद्यपि कदम -कदम पर आपत्ति ,विपत्ति होती है। सारा संसार भय भीत है ।चोर के सामने पुलिश पहुँच जाये तो वह डर जाता है ,किसी के पास व्याघ्र आ जाये तो वह डर जाता है ।कीड़े को चिड़िया का भय ,चिड़िया को कौए का भय, कौए को वाज का भय ,वाज को वन संरक्षक का भय। चारो तरफ भय है ,बच्चे को माँ का भय ,माँ को पिता है ,पिता को अपने पिता का भय ,चार संज्ञाओं में एक भय संज्ञा है ।एक इन्द्रिय से पंचेन्द्री तक के सभी प्राणियों में भय संज्ञा पाई जाती है ।यहाँ बताया जा रहा है यदि आत्मा बैर, विरोध ,पाप से भरी है तो वह अवशकुन ही है। क्योंकि वह दुःखो को उत्पन्न करने वाली है ,' बैर, पाप व अभिमान ही दुःख का मोख्य कारण है ।कषायों से मन शांत नहीं होता अपितु अशांति को प्राप्त होता है ।व्यक्ति छोटी- छोटी बातों का बड़ा विवाद बना देता है उसी प्रकार पाप दुःख को उत्पन्न करते है ,उनका त्याग करो। अभिमान गिराता है, सम्मान में बाधक है, दूरियां खड़ी कर देता है और प्रेम ,वात्सल्य को सुखा देता है इसलिए 'बैर, पाप ,अभिमान छोड़ जग नित्य नये मंगल गावे' अर्थात नित्य ही भगवान के गीत संगीत को गाना चाहिए और भक्ति करना चाहिए।🌹🌹🌹