श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 25-01-2018 दिन- गुरुवार
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होकर सुख में मग्न न भूले, दुःख में कभी न घवरावे........🖋
श्री पार्श्वनाथ दिगंबर जैन अटा मन्दिर, ललितपुर (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने आज मेरी भावना के ऊपर अपना मंगल प्रवचन देते हुए कहा कि जब हृदय में विशालता उदारता होती है तो प्राणी मात्र के प्रति हित की भावनाये उत्पन्न होने लगती है ।पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने प्राणी मात्र के हितार्थ जो मेरी भावना लिखी है वह जन -जन की भावना है।
मुनिश्री ने बताया मेरी भावना की अगली पंक्ति जीवन के लिए बहुत अच्छा सूत्र दे रही है- 'होकर सुख में मग्न न भूले ,दुःख में कभी न घवरावे; पर्वत नदी श्मशान भयानक ,अटवी से नहीं भय खावे ।। रहे अडोल अकम्प निरंतर, यह मन दृढ़ तर बन जावे; इष्ट वियोग अनिष्ट योग में सहनशीलता दिख्लावे।।' हमारे जीवन की दो ही मुख्य पहलू है -सुख या दुःख ।जीवन में कोई दुःखी है तो कोई सुखी है ,किसी के घर शहनाई सुनाई देती है तो किसी के घर जीतकर ,किसी घर में सुप्रभात भगवान के नाम उच्चार से होता है तो कही लड़ाई से झगड़े से होता है।
मुनिश्री ने बताया हर्ष विषाद बुरा नहीं है ,सुख आता है तो कुछ देकर जाता है ,सुख दुःख हमारे हाँथ की बात नहीं है ।व्यक्ति सोचता है हमारे प्रयाश से सुख दुःख मिलता है। सुख और दुःख दोनों तुम्हारी ही करनी का फल है आचार्य अमित गति मुनिराज ने सामायिक पाठ में लिखा है- ' स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पूरा, फलं त्वदीयं लभते शुभा शुभम् ; परेण दत्तम यदि लभ्यतेश फुट्म ,स्वयं कृतं कर्म निरार्थकम तदा' अर्थात सुख दुख देने वाले भगवान नहीं अपने ही कर्म है ।हम जैसा कर्म करते है वैसा ही फल हमे प्राप्त होता है ।अच्छे कर्म करने पर अच्छा फल इर बुरे कर्म करने पर बुरा ही फल मिलता है। जैसे आपने उदाहरण सुना होगा दो भाइयों का एक भाई वेश्यालय जाता था और दूसरा भाई मन्दिर जाता था ।मन्दिर जाने वाला भाई धर्म करता ,पूजा पाठ करता ,भगवान की भक्ति करता लेकिन गरीब था ।और वेश्यालय जाने वाला भाई अय्याशी करता, शराब पीता, जुआ खेलते लेकिन अमीर था। एक बार जब वो वेश्यालय के पास से आ रहा था तो उसको धन की पोटली मिली और छोटा भाई जब मन्दिर से आ रहा था उसके पैर में काँटा चुभा ,दोनों घर पर पहुँचे तो बड़े भाई ने छोटे से कहा -देखा धर्म करने का नतीजा ।छोटे भाई ने कहा- नहीं ऐसा नहीं हो सकता ,धर्म करने से कभी किसी को दुःख नहीं मिलता। दोनों मुनिराज के पास जाते है और मुनिराज से पूछते है तो मुनिराज उनकी जिज्ञासा का समाधान करते हुए कहते है ,बड़े भाई से की तुम्हारे पूर्व जन्म के पुण्य का फल है जो आज तुम भोग रहे हो। लेकिन आज पाप कर रहे हो तो आगे भोगना पड़ेगा। और छोटे भाई का पाप कर्म का उदय चल रहा था जो वह गरीब है लेकिन इस जन्म में बो पुण्य कर्म इक्कठा कर रहा है जो आगे चल कर प्राप्त करेगा। सब पुण्य पाप के फल से ही प्राप्त होता है।
मुनिश्री ने बताया -' धर्म करत संसार सुख, धर्म करत निर्वाण; धर्म पंथ सादे बिना, नर तिर्यंच समान' धर्म करने से संसार के सारे सुख प्राप्त होते है और धर्म करने से ही सास्वत सुख निर्वाण ,मोक्ष की प्राप्ति होती है और जो धर्म के मार्ग को जीवन में नहीं अपनाता वह मनुष्य और तिर्यंच दोनों ही समान है।
मुनिश्री ने कहा आचार्यो ने बताया है - 'धर्मा सर्व सूखा करो हित करो, धर्मम्म बुधाश चिन्मते; धर्मेणेव समाप्यते शिव सुखम, धर्माय तस्मे नमः' अर्थात धर्म ही सब सुखों का कारण है, वह शिव सुख मोक्ष को देने वाला है, धर्म ही सच्चा मित्र है। इसलिए जीवन में कैसी भी स्थिति आये धर्म कभी मत छोड़ना। वर्तमान में जो बुरे बीज बो रहे हो तो बुरा ही फल मिलेगा और अच्छे बीज बोओगे तो अच्छा फल मिलेगा।
मुनिश्री ने बताया सुख धर्म से मिलता है ।अज्ञानी व्यक्ति सुख के आने पर ,सम्पदा के होने पर, बाह्य उपलब्धियों के होने पर धर्म की कीमत नहीं समझता। जिससेसुख सम्पदा मिलती है उसी को भूल जाता है। जिस समय व्यक्ति जीवन में दुःख आता है तो भगवान को याद करने लगता है और सुख आने पर भूल जाता है। कवि कहता है- 'सुख में सुमरन सब करे ,दुःख में करे न कोय; जो सुख में सुमरन करे दुःख काहे को होय' अर्थात दुःख में तो सभी जीव भगवान को स्मरण करते है लेकिन जब जीवन में सुख आता है यो भगवान को भूल जाता है। जबकि सुख हो या दुःख दोनों में बग्गवां को स्मरण करते रहना चाहिए। जो सुख में सुमरन करता है भगवान को उसके जीवन में दुःख नहीं होता वह खुश रहता है।
मुनिश्री ने बताया जब दुःख के दिन बीत जाते है तो व्यक्ति भगवान ,कर्तव्य ,अकर्तव्य व् धर्म को भूल जाता है। कभी -कभी व्यक्ति पाप के उदय में भी पाप को नहीं चोदे और पापानु बंधी पाप बाँध लेते है। पाप के उदय से णिक कुल मिला ,धन सम्पत्ति रहित बना और पुनः पाप करता रहता है जिसके फलस्वरूप उसे दुर्गति का पात्र बनना पड़ता है।
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