श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 17-01-2018 दिन- बुधवार
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दान और पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है .......✍🏻
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन ,अटा मन्दिर ,ललितपुर (उ. प्र.) में मुनि संघ विराजमान है। श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने अपने मंगल प्रवचन के माध्यम से बताया कि महावीर भगवान ने 2 धर्म का उपदेश दिया -श्रमण धर्म और श्रावक धर्म ।श्रमण धर्म को अपना धर्म पालन करने के लिए 6 कर्तव्य बताये है उसी प्रकार श्रावक को भी अपना धर्म पालन करने के लिए 6 कर्तव्य बताये ,जो अपने 6 कर्तव्यों का पालन करते है वो मुनि ,मुनि है। और श्रावक ,श्रावक है।
मुनिश्री ने बताया 14 वें गुणस्थान तक जीव संसारी है ।भाव मोक्ष होने पर भी संसार है 13वें ,14 वें गुणस्थान में संसारी ,क्योकि सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाती आदि ध्यान चल रहे है। ये अन्दर का पुरुषरार्थ है। भगवत्ता की प्रकटता के लिए और स्वभाव दृष्टि से, द्रव्य दृष्टि से ,नय दृष्टि से हम निगोदिया में भी सिद्ध को देखते है ,देखते है पर होते नहीं ।होते है इसलिए देखते है फिर भी नहीं होते है ।निगोदिया में भी सिद्ध है ,कच्चा माल है, शक्ति रूप है, व्यक्त रूप नहीं है। अब व्यक्त रूप सिद्ध परमात्मा मुझे प्रकट करना है। उसके लिए भेदा भेद रत्नत्रय धर्म को स्वीकार करना पड़ेगा। धर्म को स्वीकार करना पड़ेगा। महावीर भगवान ने श्रावक को अपने धर्म का पालन करने के लिए 6 कर्तव्य बताये थे लेकिन आचार्य भगवन कुन्द कुन्द स्वामी ने रायणसार में 11 नं. गाथा के माध्यम से बताया कि दान करना ,पूजा करना श्रावक का मुख्य धर्म है इसके बिना श्रावक शोभा को प्राप्त नहीं होता और ध्यान करना ,अध्यन करना ये मुनि का मुख्य धर्म है। उसके बिना वह मुनि शोभा को प्राप्त नहीं होता। इसलिये श्रावक को अपना धर्म करना चाहिए और श्रमण को अपना धर्म करना चाहिए। अभिषेक करना श्रावक का धर्म है, पूजा करना श्रावक का धर्म है, दान करना श्रावक का धर्म है वह अनवरत अपने धर्म का पालन करता रहे तभी वह श्रावक कहलाने का अधिकारी है। और मुनिराज ध्यान और अध्ययन में लगे रहे तो वे मुनिराज कहलाने के अधिकारी है।
मुनिश्री ने मेरी भावना की पंक्ति बताते हुए कहा सच्चे गुरु की परिभाषा बताते हुए पं. जुगल किशोर मुक्तार जी मेरी भावना में बता रहे है की -'विषयो की आशा नहीं जिनके ,साम्य भाव धन रखते है; निज पर के हित साधन में जो ,निश दिन त्तपर रहते है।। स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते है।' चिन्तन कीजिये कवि ने कितनी सुन्दर बात लिखी है - 'स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या' अर्थाथ धन दौलत का त्याग देना कोई बड़ी तपस्या नहीं है ,परिवार का -कुटुम्ब का त्याग कर देना कोई बड़ी तपस्या नहीं है ,उपवाश कर लेना कोई बड़ी तपस्या नहीं है सबसे बड़ी तपस्या यदि कवि ने यहाँ पर बताई तो वो स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या ।आज हर व्यक्ति स्वार्थ में जी रहा है ।परिवार में कोई किसी का काम करता है तो कोई न कोई स्वार्थ होता है ,व्यापार में भी यदि कोई किसी का कार्य करता है तो स्वार्थ होता है ,टीचर स्टूडेंट का कोई काम कर रहा है तो उसका कोई स्वार्थ है, स्टूडेंट टीचर का की काम कर रहा है तो उसका स्वार्थ है। पुरे संसार में स्वार्थ ही स्वार्थ है ,जहाँ स्वार्थ का त्याग कर दिया उसको कवि ने सबसे बड़ी तपस्या कहा है ।और वह दिगम्बर साधु करते है और 'बिना खेद' करते है ।उसमें कोई खेद खिन्नता नहीं लाते। निर्मल परिणामो के साथ स्वार्थ का त्याग करते है और 'निज पर के साधन में निश दिन त्तपर रहते है' अपना और दूसरे के कल्याण करने की भावना को लिए हुए प्रतिदिन साधना में सलग्न होते है और अपना ध्यान और अध्ययन करते रहते है, अपने कर्तव्य का पालन करते रहते है जिसके माध्यम से उनके मूलगुणों का पालन होता है।
मुनिश्री ने बताया श्रावक को भी अपने मूलगुण का पालन करना चाहिए और भाव पूर्वक करना चाहिए। आचार्य भगवन कहते है धर्म क्वालिटी में हो, क्वांटिटी में न हो ।आप पूजा करे भले ही एक पूजा करे लेकिन भाव से करे ,जाप माला फेरे भले ही एक माला फेरे कहने का तातपर्य आप जो भी क्रियाये करे वो भाव से करे और अपने धर्म का पालन करे श्रावक के काम मुनिराज न करे और मुनिराज के काम श्रावक न करे ।श्रावक का काम है दान करना पूजन करना ,श्रावक का धर्म है मुनि का नहीं है। हाँ मुनिराज के धर्म को अपेक्षाकृत श्रावक भी कर सकता है। स्वाध्याय भी कर सकता है ,ध्यान भी कर सकता है ।लेकिन श्रावक के कर्तव्यों को मुनिराज नहीं कर सकते क्योंकि मुनिराज महा व्रती होते है ।ऐसे दिगम्बर साधु की चर्या हुआ करती है ,दोनों ही अपने -अपने धर्म का पालन करे।🍄🍄