श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 18-01-2018 दिन- गुरुवार
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रहे सदा सत्संग उन्ही का ,ध्यान उन्ही का नित्य रहे......💐
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन ,अटा मन्दिर, ललितपुर (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने आज मेरी भावना के माध्यम से श्रावक जनो को धर्म उपदेश दिया ।
मुनिश्री ने बताया मेरी भावना गागर में सागर कही गई है। पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने सारे शास्त्रो का निचोड़ मेरी भावना में भरने का प्रयाश किया है और उसका नाम मेरी भावना रखा है ,उस भावना को कोई भी पड़ेगा तो वह भावना उसकी भावना ही कहलाएगी। प्रारम्भ की चार पंक्तियों में सच्चे देव का वर्णन आया ,उसके बाद चार पंक्तियों में सच्चे गुरु का वर्णन आया अब श्रावक अपनी भावना रख रहा है।
मुनिश्री ने बताया आज का श्रावक घर बैठकर मेरी भावना का पाठ कर लेता है लेकिन उस पर चिंतन नही करना चाहता। मेरी भावना में कहा गया है -'रहे सदा सत्संग उन्ही जा ,ध्यान उन्ही का नित्य रहे; उन्ही जैसी चर्या में यह, चित्त सदा अनुरक्त रहे।। नहीं सताऊं किसी जीव को ,झूठ कभी नहीं कहा करू; पर धन वनिता पर न लुभाऊ ,सन्तोषअमृत पिया करू।।' ध्यान से समझना इन चार पंक्तियों में पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने श्रावक को श्रावक धर्म का ओर मुनि को मुनि धर्म का पालन करने का जो कथन किया है उसको समझने की आवश्यकता है। जब हमने ऊपर चार पंक्तियों में सच्चे गुरु का वर्णन किया तो उसके  बाद भावना रख दी -रहे सदा सत्संग उन्ही का ,ध्यान उन्ही का नित्य रहे ' आप घर बैठकर मेरी भावना पड़ रहे है और आप भावना कर रहे है रहे सदा सत्संग उन्ही का , किन का? समझना उन साधुओं का सत्संग हमेशा बना रहे ,प्रतिदिन बना रहे, उनका ध्यान प्रतिदिन करता रहू ,उनका स्मरण, उनका नाम प्रतिदिन लेता रहू ओर भावना ऐसे भाऊ- उन्ही जैसी चर्या शव्द का उच्चारण किया गया ।मुनिराज महा व्रत का पालन करते है तो कम से कम हम अणुव्रतों का पालन करे ।अगली वाली दो पंक्ति है जिनमे महाव्रतों का वर्णन आया है ।मुनिराज महाव्रतों का पालन करे और उन्ही पांच को एक देश श्रावक पालन करे तो वो अणुव्रत में आ जाता है ।क्या कहा जा रहा है? नही सताऊं किसी जीव को ,विचार करना यहाँ पर किसी जीव को मारने के लिए हिंसा नही कहि गई है ,सताने मात्र हो हिंसा कहा गया है ।मारना तो दूर की बात सताना भी हिंसा है किसी के भावों को, परिणामो को अगर आपने ठेश पहुँचा दी तो भी वो हिंसा होगी। एक द्रव हिंसा होती है ,एक भाव हिंसा होती है ।द्रव हिंसा हाँथ से हो जाती है और भाव हिंसा मन में परिणाम भाव बनाने से ही हो जाती है ।आज का व्यक्ति द्रव हिंसा कर पाए या न कर पाए भाव हिंसा में तो तल्लीन है ।आगम में चार प्रकार की हिंसा बताई गई है -आरंभि हिंसा, उद्योगों हिंसा, क्रोधी हिंसा और संकल्पी हिंसा। श्रावक आरंभि हिंसा का त्याग नहीं कर सकता क्योकि उसे घर गृहस्थी के काम करना है। उद्योगों हिंशा का त्याग नही कर सकता क्योंकि उसे व्यापार करना है ,विरोधी हिंशा का त्याग नही कर सकता क्योंकि वह अपने बचाब के लिए किसी पर आक्रमण भी कर सकता है, लेकिन संकल्पी हिंशा का त्याग अनिवार्य करना चाहिए ,संकल्प पूर्वक कीसी को नही मारना ये श्रावक के लिए अनिवार्य है। और मुनिराज तो चारो प्रकार के हिंशा के त्यागी होते है इसलिए उनका महाव्रत कहलाता है। किसी जीव के प्रति सताने के भाव भी नही रखते वही है उत्कृष्ट अहिंसा महा व्रत ।दूसरा व्रत बताया जा रहा है झूठ कभी नहीं कहा करो ,शब्दो पर ध्यान दीजियेगा झूठ कभी नही कहा करू मतलब सत्य महाव्रत का पालन करना है। जो भी बोलो ,जब भी बोलो सत्य बोलो उसके अलावा कुछ न बोलो। साधु को बोलने के लिए चार -चार पाबंदी लगा दी गई - पहला सत्य महाव्रत, दूसरा भाषा समिति, तीसरा उत्तम सत्य धर्म, और चौथा वचन भुक्ति ।इनको ध्यान में रखकर साधु को अपनी वाणी बोलना चाहिए ।उसके बाद कह रहे है- पर धन वनिता पर न लुभाऊ ,पर धन न लुभाऊ पर वनिता न लुभाऊ। पर धन न लुभाऊ मतलब चोरी नही करू दूसरे का धन उससे बिना पूछे नुठाऊ ।किसी व्यक्ति की रखी हुई, पड़ी हुई, भूली हुई वस्तु को बिना पूछे उठा लेना चोरी कहलाती है उस चोरी को सम्पूर्णता, पूर्णता त्याग करना अचौर्य महाव्रत है। और पर वनिता न लुभाऊ ,वनिता न लुभाऊ मतलब स्त्री को न लुभाऊ स्त्री को ही छोड़ देना ये उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य महाव्रत है। पर वनिता न लुभाऊ मतलब दूसरे की स्त्री को न लुभाऊ स्व स्त्री में ही सन्तोष रखु ।'स्व्दार सन्तोषअमृत' नाम का व्रत पालन करू ।और अंत में कह 'सन्तोषअमृत पिया करू' अर्थात में व्यापार करू तो व्यापार में जो आय व्यय हो उसमें सन्तोष रखु ,लोभ लालच न करू, परिग्रह में आशक्ति न करू ,ज्यादा परिग्रह न जोडू ,सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग मुनिराज करते है और परिग्रह का परिमाण श्रावक बनाते है। तो मात्र दो पंक्तियों में पांच महाव्रत, पांच अणुव्रतो का वर्णन बताया गया। जो ऐसे पांच महाव्रतों का वर्णन करते है श्रावक भावना भा रहा है कि उनका सत्संग मुझे हमेशा मिलता रहे ,उनका ध्यान में निरंतर प्रतिदिन करता रहू ,ओर उनकी जैसी जो चर्या है उस चर्या का कुछ अंश में मैं भी पालन कर सकू।
मुनिश्री का मंगल प्रवाश अभी कुछ दिन पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन ,अटा मन्दिर जी में ही रहेगा।🌺🌺🌺