मनुष्य भव को प्राप्त कर, तत्वों का मनन करके, मन के साथ—साथ पाँचों इन्द्रियों का दमन करके, निर्वेद को प्राप्त होकर और सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग करके वन में जाकर भी तप करना चाहिए। तप वह है जहाँ परिग्रह का त्याग किया जाता है, तप वह है जहाँ काम को भी नष्ट कर दिया जाता है, तप वह है जहाँ नग्न मुद्रा दिखाई देती है और तप वह है जहाँ पर्वतों की वंदराओं में निवास किया जाता है। तप वह है जहाँ उपसर्ग को सहन किया जाता है, तप वह है जहाँ रागादि भावों को जीता जाता है, तप वह है जहाँ भिक्षावृत्ति से भोजन किया जाता है और श्रावक के घर योग्य काल में जाया जाता है। तप वह है जहाँ समिति का परिपालन होता है, तप वह है जहाँ तीन गुप्तियों की ओर ध्यान दिया जाता है, तप वह है जहाँ अपने और पर के स्वरूप का विचार किया जाता है और तप वह है जहाँ भव—पर्याय के अहंकार को छोड़ा जाता है। तप वह है जहाँ अपने स्वरूप का िंचतवन किया जाता है, तप वह है जहाँ कर्मों का नाश किया जाता है, तप वह है जहाँ देवगण अपनी भक्ति प्रकाशित करते हैं और जहाँ भव्य जीवों के लिए प्रवचन के अर्थ का कथन किया जाता है। तप वह है जिसके होने पर निश्चित ही केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है और जिससे नित्य शाश्वत सौख्य की प्राप्ति की जाती है। बारह प्रकार का तप उत्तम है और दुर्गति का परिहार करने वाला है। अत: स्थिर मन होकर उसकी पूजा करनी चाहिये और मद तथा मात्सर्य भावों को छोड़कर पाँचों इन्द्रियों का दमन कर गौरव के साथ उस उत्तम तप को धारण करना चाहिये।
‘कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तप:।’ कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है वह तप है। तप के बाह्य और आभ्यंतर से युक्त बारह भेद कहे गए हैं। अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शयनासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग तथा ध्यान ये छह अन्तरंग तप है
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