हे भव्य जीवो इस संसार में संयम धर्म दुर्लभ है, जो प्राप्त कर उसे छोड़ देता है वह मूढ़मति है, वह जरा और मरण के समूह से व्याप्त इस संसाररूपी वन में परिभ्रमण करता रहता है, पुन: वह सुगति को कैसे प्राप्त कर सकता है? पाँचों इन्द्रियों के दमन करने से संयम होता है, कषायों का निग्रह करने से संयम होता है, दुर्धर तप के धारण करने से संयम होता है और रस परित्याग के विचार भावों से संयम होता है। उपवासों के बढ़ाने से संयम होता है, मन के प्रसार को रोकने से संयम होता है, बहुत प्रकार के कायक्लेश तप से संयम होता है और परिग्रहरूपी पिशाच के छोड़ने से संयम होता है। त्रस—स्थावर जीवों की रक्षा से संयम होता है, सात तत्वों के परीक्षण से संयम होता है, काययोग के नियंत्रण से संयम होता है और बहुत गमन के त्याग से संयम होता है। अनुकंपा करने से संयम होता है, परमार्थ तत्त्व के विचार करने से संयम होता है, यह संयम सम्यग्दर्शन के मार्ग को पोषित करता है और वह संयम ही निश्चय से मोक्ष का मार्ग है। संयम के बिना यह सारा मनुष्य भव शून्य के समान है, संयम के बिना यह जीव दुर्गति में जन्म ले लेता है। इसलिये संयम के बिना एक घड़ी भी व्यर्थ मत जीओ, क्योंकि संयम के बिना सम्पूर्ण आयु विफल है। इस भव में और परभव में संयम ही शरण हो सकता है ऐसा श्री जिनेन्द्र देव ने कहा है। यह दुर्गतिरूपी सरोवर का शोषण करने के लिये तीक्ष्ण किरणों के समान है। इस उत्तम संयम से ही विषम भवावली का नाश होता है ।
: समिति में प्रवृत्त हुये मुनि जो प्राणी हिंसा और इन्द्रिय विषयों का परिहार करते हैं सो संयम हैं।’’ संयत मुनियों में प्राणी संयम और इन्द्रिय संयम की अपेक्षा दो भेद हैं। पाँच स्थावर और त्रस ऐसे षट्काय जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है और पाँच इन्द्रिय तथा मन का जय करना इन्द्रिय संयम है। हे भगवन्! जीवों से ठसाठस भरे हुये इस संसार में मैं कैसे प्रवृत्ति करूँ ? कैसे बोलूँ ? और कैसे भोजन करूँ ? कि जिससे पाप का बंध नहीं होवे ? इस प्रकार से प्रश्न होने पर आचार्य कहते हैं कि यत्नपूर्वक आचरण करो, यत्नपूर्वक भाषण और भोजन करो तथा यत्नपूर्वक सम्पूर्ण क्रिया करने से तुम्हें पाप का बंध नहीं होगा। देखो ! सीता का जीव जब अच्युतेन्द्र हुआ ‘एक व्रत को धारण करने से रावण मेरे साथ बलात्कार के लिये प्रयत्नशील नहीं हुआ’ ऐसा सोचकर वह अच्युतेंद्र नरक में जाकर रावण को सम्यक्त्व ग्रहण कराकर वैर का त्याग करा देता है। मैं सर्व इंद्रिय और मन को नियन्त्रित करके अपनी आत्मा में स्थित करना चाहता हूँ कि जिससे कर्म और कर्म के फल को भोगता हुआ कचित् मात्र खेद को न प्राप्त होऊँ।।१ से ५।। प्रतिदिन ऐसी भावना भाते रहना चाहिए। इस प्रकार से वह संयम पूर्णतया मुनियों के ही होता है किन्तु गृहस्थ भी एक देश रूप से संयम का पालन करते हैं चूँकि उनकी छह आवश्यक क्रियाओं में संयम भी एक क्रिया हैं कुछ न कुछ नियम का लेना एक संयम है। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी प्रत्येक कार्य को सावधानीपूर्वक करना संयम है। सावधानीपूर्वक चलना, फिरना, उठना, बैठना भी संयम है। चौराहे की लालबत्ती संयम को सिखाती है जो उसकी उपेक्षा करते हैं वह जीवन को भी खतरे में डाल देते हैं। अभक्ष्य का त्याग कर देना तथा खाने योग्य वस्तु को भी जब तक नहीं खाते, तब तक के लिए छोड़ देना भी संयम है। इसलिये जो रात्रि में सर्वथा आहार का त्याग कर देते हैं तो एक महीने में पंद्रह दिन के उपवास के फल को प्राप्त कर लेते हैं ।नरभव सफल करना है तो संयम को धारण करो इसके बिना जीवन पशुओं के समान है
      
       *जय जिनेन्द्र*