तप

अनशन उनोदर करें, व्रत्संख्या रस छोर !  विविक्त शयनासन धरें, कायेक्लेश सुठौर !!
प्रायश्चित धरि विनययुत, वैय्याव्रत स्वाध्याय ! पुनि उत्सर्ग विचार के, धरें ध्यान सब लाय !!

तीर्थंकर प्रकृति का बँध कराने वाली , 16 कारण भावनाओं मे 7th है शक्तिस्तप भावना !

शक्ति के अनुसार तप करने की भावना को शक्तिस्तप भावना कहते हैं. मुनीराज निरंतर तप करते हैं, यह भावना भाते हैं, किंतु गृहस्थ के आत्म-कल्याण के लिए भी यह परम-आवश्यक है.जो व्यक्ति निरंतर चिन्त्वन करता रहता है की मैं अपने तप की निरंतर वृद्धि करूँ, उसे तीर्थंकर प्रकृति का बँध होता है.




तप के 2 भेद :-

१-अन्तरंग तप- इनका संबंध जीव के आंतरिक परिणामो से होता है जो क़ि अन्य लोगों को दिखाई नही देते, अंतरंग तप विशेष रूप से जैन धर्मावलंबी ही किया करते हैं.

अन्तरंग तप के 6 भेद -

1-प्रायश्चित- किसी व्रत मे कोई दोष लगने के बाद स्वयं आचार्य के पास जाकर ज्यों की त्यों कह कर उसका प्रायश्चित/दंड उनसे लेकर से-हर्ष स्वीकार करना, प्रायश्चित तप है.  यह तप इस अपेक्षा से है की, सबसे पहले तो अपनी ग़लती स्वीकार करने बहुत कठिन होता है, उसके बाद उसके दंड को स्वीकार करना और भी कठिन है. तपस्वी प्रायश्चित को स्वीकार करके इसलिए हर्षित होता है क्यूंकी इस से वह अपनी आत्मा मे लगे दोष से मुक्त होकर उसे शुद्ध कर लेता है.

2-विनय- अपने से आयु(आगे), ज्ञान और तपस्या मे बड़ों की यथा-योग्य विनय करना, विनय तप है. इस से मान का मर्दन होता है. जब हम 60-65 वर्षा की आयु मे किसी 30-32 साल के मुनि महाराज को नमोस्तु करते हैं , तो मान मर्दन होता ही है.

3-वैय्यावृत्ति -व्रती के कोई रोग हो, थकावट हो, उनके शरीर मे दर्द है , तब उनकी सेवा करना, वैय्यावृत्ति तप है. इस तप मे सेवा का भाव होने से मान का मर्दन होता है.

4-स्वाध्याय- स्वाध्याय = स्व+अजि+अयति अर्थात ,जो अपनी आत्मा की ऒर ले जाए,उसे स्वाध्याय कहते है !
जिन-शास्त्रों को पढ़ कर उनमे से आत्म-कल्याण की बातों को स्वीकार करना, अंगीकार करना ही स्वाध्याए है, पढ़ के भूल जाना नही.

5-व्युत्सर्ग- बाहर के और अंदर के, समस्त परिग्रहों से अपने आप को भिन्न(अलग) समझना, व्युत्सर्ग तप है.

6-ध्यान- एकांत मे बैठकर जाप देना, ध्यान लगाना, 3-4 घंटे बैठ कर आत्म-चिंतन करना सो ध्यान तप बताया है.



२-बहिरंग तप - इनका संबंध हमारी बाहरी क्रियायों से है , जिनको अन्य लोग भी देख सकते हैं ! दूसरे धर्म के लोग भी बहिरंग तप को करते हैं.


बहिरंग तप के 6 भेद- 

1-अनशन- खाद्या(खाद्य), स्वाधय(स्वाद्य), लेया(लेय) और पेया(पेय) चारों प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन तप है.  अनशन का अर्थ उपवास से है. आप इसमे कुछ भी नही खाएँगे(खाद्य), किसी भी वस्तु का स्वाद नही लेंगे(स्वाद्य) जैसे मीठी सुपारी का स्वाद, और लेया माने कुछ भी चाटेंगे नही, और जल भी ग्रहण नही करेंगे(पेय). यदि जल(पानी) पीया तो अनुपवास कहा जाएगा. याद रखें उपवास मे चारों प्रकार के आहार का त्याग करना होता है.

2-उनोदर(अवमौदर्य)- भूख से कम खाना, जैसे की भूख 4 रोटी की है, किंतु 3 ही खाना सो उनोदर तप है.

3-वृत्तिपरिसंख्यान -ये मुनि/साधु के लिए होता है, जब वह आहार के लिए निकलते हैं तब विधि लेकर चलते हैं, तथा जहाँ विधि पदगाहना पर मिलती है उस चौके मे आहार लेते हैं. यदि विधि नही मिलती है तो वापिस लौट जाते हैं, और उस दिन का उपवास रखते हैं.

4-रस परित्याग- 6 रस बताए हैं, उनमे से किसी 1 का , 2 का ,3 का या शक्ति अनुसार सभी रसों का त्याग करना सो, रस-परित्याग है. जैसे 1 दिन के लिए नमक का त्याग कर दिया, अष्टमी-चौदस को हरी का त्याग करना इत्यादि रस-परित्याग कहे जाते हैं.! छह रसों के त्याग मे दूध-दही,घी-तेल- नमक-मीठा का त्याग होता है.

5 -विविक्त शय्यासन- एकांत मे सोना ओर बैठना. इस से हृदय मे दृढ़ता आती है, डर दूर होता है, मन की एकाग्रता होती है. जिस से तपस्या उच्च-कोटि की होती है.

6-कायोत्सर्ग(कायक्लेश)- किसी पहाड़ी, शिला अथवा निर्जन(जहाँ कोई भी इंसान ना हो) स्थान मे खड़े होकर काया को कष्ट देते हुए 2-3 घंटे तप करना, काए-क्लेश तप बताया है.

इन 12 तपों का निरंतर अभ्यास करना है