स्वप्न में भी जाग्रत दशा में अनुभूत पदार्थों का ही ज्ञान होता है, इसलिए स्वप्न ज्ञान भी सर्वथा निर्विषय नहीं है !
जिन भद्रगणि क्षमाश्रवण ने कहा है - अनुभव किये हुए, देखे हुए, विचारे हुए, सुने हुए, कहे हुए पदार्थ, वात, पित्त आदि प्रकृति के विकार, दैविक और जल प्रधान प्रदेश स्वप्न में कारण होते हैं !
- सुख निद्रा आने से पुण्य रूप और सुख निद्रा न आने से पाप रूप स्वप्न दिखाई देते हैं !
- वास्तव में स्वप्न सर्वथा अवस्तु नहीं हैं !
- जिनागम में स्वप्न का बड़ा महत्व है !
हम प्राय: देखते हैं कि प्राचीन जिनमंदिरों में भरत चक्रवर्ती के 16 स्वप्न, तीर्थंकर माता के सोलह स्वप्न, सम्राट चन्द्रगुप्त के सोलह स्वप्न सचित्र अंकित होते हैं !
स्वप्न २ प्रकार के होते हैं :-
१- स्वस्थ अवस्था वाले,
२- अस्वस्थ अवस्था वाले
जो धातुओं की समानता रहते दीखते हैं वे स्वस्थ अवस्था वाले स्वप्न हैं ! स्वस्थ अवस्था में दिखने वाले स्वप्न सत्य होते हैं !
जो धातुओं कि असमानता से दीखते हैं वो स्वस्थ अवस्था वाले स्वप्न हैं ! यह स्वप्न असत्य होते हैं !
- स्वप्नों के २ भेद और भी कहे हैं :-
एक दैव से उत्पन्न होने वाले दूसरे दोष से उत्पन्न होने वाले !
दैव से उत्पन्न स्वप्न सत्य और दोष से उत्पन्न स्वप्न असत्य हुआ करते हैं !
- वात-पित्तादि रोगों से रहित जीव सूर्य-चन्द्रमा आदि को देखता है सो शुभ स्वप्न हैं तथा गर्दभ, ऊंट आदि पर चढ़ना व् प्रदेश गमन इत्यादि देखता है वह अशुभ स्वप्न है !
आने वाले दिनों में हम भरत चक्रवर्ती के 16 स्वप्न, तीर्थंकर माता के सोलह स्वप्न के विषय में चर्चा करेंगे !