श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 18-02-2018 दिन- रविवार
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जिस विषय के तुम ज्ञाता नहीं हो उस विषय में मौन शोभा देता है......🍃
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर,
अशोकनगर (म. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज का आज मंगल आगमन हुआ। मुनि श्री ने प्रवचनसार ग्रन्थ के माध्यम से बताया कि जिस विषय के तुम ज्ञाता नहीं हो उस विषय में मौन शोभा देता है ।बोलना मूर्खता का हेतु बन जाता है। हमे उतना उस विषय पर बोलना चाहिए जिस विषय में ज्ञाता है वहाँ हम ज्ञानी कहलायेंगे। ज्ञानी को अपने ज्ञानीपने की रक्षा करना हो तो हर विषय में नहीं बोलना चाहिए। ज्ञानी को अपने आप को ज्ञानी पण्डित कहलवाने की लालसा है तो हर विषय में नहीं बोलना चाहिए मात्र उसी विषय में बोलना जिसमे तुम ज्ञाता हो।
🍃मुनिश्री ने बताया आज हर व्यक्ति अपने विचारों को बोलना चाहता है ,भले ही उसे कुछ आये या न आये लेकिन बस बोलना है ।अपने आप को ज्ञानी सिद्ध करना है। आचार्यो ने कहा है जिस विषय का ज्ञान हमे नहीं है उस विषय पर बिलकुल भी नहीं बोलना चाहिए मौन ले लेना चाहिए। यदि कोई आपसे प्रश्न करता है और यदि उस प्रश्न का जबाब आपको नहीं आता है तो वहाँ बोल देना चाहिए की भाई इस प्रश्न का जबाब मेरे पास नहीं है ।मैं अध्ययन करूंगा उसके बाद बताऊंगा। यदि आपने न आते हुए भी उस प्रश्न का जबाब दे दिया तो हो सकता है आपके बताये प्रश्न के उत्तर से प्रश्न करता की श्रद्धा टूट जाये इसलिये बड़े सोच -समझ कर उत्तर देना चाहिए।
🍃मुनिश्री ने बताया द्रव्य की द्रव्यता त्रैकालिक है ,बस्तु की व्यवस्था त्रैकालिक है, बस्तु व्यवस्था को भंग करने की सामर्थ्य जगत में किसी भी जीव के अन्दर नहीं है। चाहे वह चक्रवर्ती पद पर आसीन हो, चाहे वह नारायण -प्रतिनारायण पद पर आसीन हो, चाहे वो बलभद्र, चाहे कामदेव हो, चाहे वो सौधर्म इंद्र हो ,चाहे वो तीर्थंकर ही क्यों न हो निज के ज्ञान में जो विपर्याश है जीव के अन्दर वह भी बस्तु व्यवस्था के अन्तर्गत है। जीव के ज्ञान में जो समीचीनता है वह भी बस्तु व्यवस्था के अंतर्गत है, और जो बस्तु व्यवस्था के विपरीत चिन्तन चल रहा है वह भी बस्तु व्यवस्था के अंतर्गत ही है। इसे स्वीकारने में आपको थोड़ी झिझक लगेगी पर झिझकने की कोई आवश्यकता नहीं है। ज्ञान की पर्याय है सम्यक्त्व सहित सम्यग्ज्ञान शब्द से युक्त है, मिथ्या सहित मिथ्याज्ञान शब्द से युक्त है ।
🍃मुनिश्री ने कहा कुमति, कुश्रुत, कुअवधि भी ज्ञान की पर्याय है और मति, श्रुत, अवधि ये भी ज्ञान की पर्याय है। जब विपरीतता से युक्त होगा उसे विपरीत ही दृष्टिगोचर होगा ।समीचीनता से युक्त होगा उसे समीचीन ही दृष्टिगोचर होगा उसके ज्ञान में जो विपरीतता है वह भी बस्तु का स्वभाव है। जीव को भगवान बाद में स्वीकारना ,जीव को इंसान बाद में स्वीकारना, जीव को पशु बाद में स्वीकारना ,जीव को देव बाद में स्वीकारना, जीव को नारकी बाद में स्वीकारना पहले जीव को जीव द्रव्य स्वीकारना ।
🍃मुनिश्री ने बताया आचार्यो ने इसलिये कहा है पहले बस्तु की व्यवस्था को अच्छी तरह से जाने उसके बाद कुछ बोले ।द्रव्य का स्वरूप क्या है? पर्याय का स्वरूप क्या है? इसको जानना बहुत जरूरी है। जैन दर्शन हर बस्तु में नित्यानित्य मानता है अर्थात द्रव्य की दृष्टि से हर बस्तु नित्य है और पर्याय की दृष्टि से हर बस्तु अनित्य है। जो पर्याय है वे परिणमन शील है जो पर्याय है वे गमनशील है पर जीवत्व भाव ध्रौव्य पारिणामिक है। उस ध्रुव जीवत्व भाव में ही ज्ञान की पर्याय गमन कर रही है। विभाव गुण व्यंजन पर्याय में ,स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय में व्यंजन पर्याय गुण की है, जीव का स्वभाव है। हे जीव! स्वभाव तो स्वभाव है लेकिन विभाव भी एक स्वभाव है। बस्तु व्यवस्था से अवस्थित कोई काम हो नहीं सकता। जगत में बस्तु व्यवस्था से भिन्न कुछ भी परिणामन होता ही नहीं है।
🍃मुनिश्री ने बताया- स्वभाव स्वभाव के जानन हरे, स्वभाव स्वभाव की प्राप्ति नहीं कर पायेंगे। विभाव स्वभाव को जान करके स्वभाव स्वभाव को जानेंगे वे ही स्वभाव को प्राप्त हो सकेंगे। विभाव स्वभाव को पहचानिए ,विभाव स्वभाव का विनाश कीजिये ।जब ये जीव रागी होता है तो सारे द्रव्य को बटोर-बटोर करके अपने सर पर रखता है ,अपने घर बनाता है, भवन बनाता है, संग्रह करता है ,स्व में अहम बुद्धि रखता है वही जीव वैरागी हो जाता है तो उन्ही द्रव्यों को छोड़ना प्रारम्भ कर देता है। जगत को देखने का काल है वो राग की सत्ता में है और निज को देखने का जो समय है वह वैराग्य की सत्ता में है।🌸🌸
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