श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 19-01-2018 दिन- शुक्रवार
🖋🍃🖋🍃🖋🍃🖋🍃
सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र एकता ही मोक्ष मार्ग है.......🌿
श्री पार्श्वनाथ दिगम्बर जैन, अटा मन्दिर ,ललितपुर (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज विराजमान है। आज मुनिश्री ने प्रवचनसार ग्रन्थ की व्याख्या करते हुए कहा मात्र दर्शन ,चारित्र निर्वाण नहीं देता ,दर्शन ज्ञान है प्रधान जिसमे उसके साथ जो चारित्र है वह वित्तराग चारित्र मोक्ष देता है ।अर्थात सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र इन तीनो की एकता ही मोक्ष मार्ग है। पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने मेरी भावना में ऐसे साधु का ही वर्णन किया जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यग्चारित्र रूपी रत्नत्रय को धारण किये है वही मोक्ष मार्ग पर चलने वाला मोक्ष पथ गामी है। सर्वप्रथम साधु बनने के लिए पांच महाव्रतों का पालन करना अनिवार्य है ,उन पांच महाव्रतों का वर्णन करते हुए यहाँ बताया गया -' नहीँ सताऊं किसी जीव को ' अर्थात द्रव हिंशा और भाव हिंशा दोनों का त्याग। आरम्भि हिंसा ,उद्योगों हिंसा ,विरोधी हिंसा, संकल्पी हिंसा सम्पूर्ण हिंसा का त्याग ।जब हिंसा का त्याग होगा तभी अहिंसा महाव्रत आयेगा और उसे अंश रूप में ग्रहण किया तो अहिंसा अणु व्रत बन जायेगा ।जो श्रावको के लिए होता है।
मुनिश्री ने बताया दूसरा महाव्रत सत्य महाव्रत है मेरी भावना में यही बताया गया- 'झूठ कभी नहीं कहा करू' दिगम्बर मुनि कभी झूठ नहीं बोलते ,उन्हें बोलने के लिए सबसे पहले सत्य महाव्रत है वो जो भी बोले सत्य बोले ।दूसरे नम्बर पर भाषा समिति दी गई जब भी बोले हित मित प्रिय वचन बोले ।तीसरे नम्बर पर उत्तम सत्य धर्म दिया गया ऐसा बोल जिससे किसी जीव के प्राणों का घात न हो जाये। और चौथे नम्बर पर वचन गुप्ति दी गई जिसका तातपर्य है आवश्यकता पड़ने पर ही बोले वरना अधिक समय मोन रहे। इस प्रकार अपनी वाणी को निकालने के पहले उसको तौले और बाद में बोले ।
मुनिश्री ने बताया तीसरा महाव्रत अचौर्य महाव्रत और चौथा ब्रह्मचर्य महाव्रत है। मेरी भावना में बताया जा रहा है- 'पर धन वनिता पर न लुभाऊ' इसका तातपर्य है किसी के धन को मैं अपना धन न बना लूं, किसी की स्त्री को मैं अपनी स्त्री न बना लूं ,किसी के धन की चोरी के भाव भी मन में न आ जाये वरना चोरी का दोष लग जायेगा। दिगम्बर मुनिराज जल और मिट्टी के अलावा किसी की कोई भी वस्तु बिना पूछे नहीं उठा सकते ।किसी की रखी हुई, पड़ी हुई, गिरी हुई, भूली हुई वस्तु को उठा लेना मात्र ही चोरी होती है। जिनागम कहता है किसी की वस्तु के चोरी करने के मन में भाव आना भी चोरी है ।अचौर्य महाव्रत का पालन करने वाला चोरी से बचता है और ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन करने वाला स्त्री मात्र से बचता है। स्त्री मात्र का त्यागी ,उसे सभी स्त्रियां माता ,बहन, और बेटी के समान दिखती है। उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य का तातपर्य मेरे चिन्तन के अनुसार यही है कि न स्त्रियों से दूर भागो और न स्त्रियों के पीछे भागो उनके बीच में रहकर ही अपने आत्म धर्म में लीन रहो यही उत्कृष्ट ब्रह्मचर्य धर्म है। इस प्रकार चौथे महाव्रत का पालन करते है।
मुनिश्री ने आगे बताया पाँचवा महाव्रत अपरिग्रह महाव्रत है ,सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग कर देना ।मेरी भावना में बताया- 'संतोषामृत पिया करू' सन्तोष रूपी अमृत का पान करता है ।दिगम्बर साधु के लिए पिच्छी कमण्डल शास्त्र ही उपकरण है। और वह उसमे ही सन्तोष रखकर अपनी आत्मा का चिन्तन, मंथन ,मनन करते है। इन्ही पांच व्रतों को एक देश ग्रहण करना, अंश रूप में ग्रहण करना, स्थूल रूप में ग्रहण करना अणु व्रत कहलाता है जो श्रावको के लिए होता है। कवि यहाँ पर बताना चाहते है जो ऐसे पंच महाव्रतों को धारण किये हुए है ,विषय कषायों का त्याग किये हुए है, समता रूपी धन अपने पास रखते है, निज पर के साधन में प्रतिदिन त्तपर रहते है ,स्वार्थ त्याग की कठिन तपस्या करते है ऐसे ही साधु जगत के दुःख समूह को हरते है। उन सच्चे साधु को प्रणाम करके, वंदना करके, नमस्कार करके श्रावक अपने कर्मो को निर्जरा कर लेता है। वह रत्नत्रय धारी मुनिराज अपने चारित्र का पालन कर सातिशय पुण्य का अर्जन करते है और कर्मो की निर्जरा करके मोक्ष को प्राप्त करते है।🍁🍁