एक बार इसे जरूर पढ़ें......
मुनि श्री का चिंतन....
श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन
🖋🖋विशेष प्रवचन 🖋🖋
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दिगम्बर सन्त महाराज नहीं मुनिराज हैं ......🌹✍🏻🌹
श्री दिगम्बर जैन अटा मन्दिर, ललितपुत (उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज एवं श्रमण श्री विश्वाक्षसागर जी मुनिराज विराजमान है ।आज प्रातः काल श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने प्रवचन करते हुए समाज के लिए एक चिन्तन दिया और सोचने के लिए एक नया विषय दिया जो आगम प्रमाणित है ,प्राचीन है एक ऐसा सब्द जो केबल दिगम्बर जैन आमना में ही है और कही किसी भी आमना में ,किसी भी साम्प्रदाय में उन शब्दों का प्रयोग नहीं होता है ।
ऐसे शब्द का व्याख्यान करते हुए मुनिवर ने बताया कि हमारी संस्कृति प्राचीन संस्कृति है ।हमारे इस भारत देश में जितनी भी संप्रदाय है ,जितने भी धर्म है ,उन धर्मो को जो उपदेशक है ,धर्म गुरु है ;उनको नमन करने, प्रणाम करने, नमस्कार करने कोई शब्द का प्रयोग किया जाता है हर धर्म के साधु को जब नमस्कार किया जाता है तो किसी न किसी शब्द का प्रयोग किया जाता है ।उसी प्रकार जैन धर्म में भी साधुओं के लिए एक शब्द का प्रयोग किया गया और वह शब्द उत्कृष्ट शब्द है । जब हम प्राचीनता की बात करे तो प्राचीनता में चार प्रकार के संघ का वर्णन आगम ग्रंथो में है- ऋषि ,मुनि, यति और अनगार इन चार प्रकार के संघ में दिगम्बर साधु को ऋषि कहा जाता है ,मुनि कहा जाता है, यति कहा जाता है और अनगार कहा जाता है ।अगर हम 'तत्वार्थ सूत्र' ग्रन्थ को देखे तो मुनियो के पाँच भेद वहाँ पर बताये गये -पुलाक, बकुश, कुश शील, निर्ग्रन्थ और स्नातक और उसी ग्रन्थ 'तत्वार्थ सूत्र' में 10 प्रकार के मुनि और बताये गये जो वैय्यावृत्ति करने योग्य है। उनके नाम भी शास्त्र में ,आगम में वर्णित है ।आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, साधु, संघ और मनोज्ञ ऐसे 10 प्रकार बताये गये है जो वैय्यावृत्ति करने योग्य है ।ऐसे उत्कृष्ट शब्दो का प्रयोग दिगम्बर जैन धर्म में साधु के लिए किया गया है। साधु को सम्बोधन करने के लिए इन उत्कृष्ट शब्दो का प्रयोग किया गया है।
विभंजनसागर जी मुनिराज ने अपना चिन्तन बताते हुए कहा कि जो वर्तमान में आज दिगम्बर जैन साधुओं को सम्बोधन करने के लिए जिस शब्द का प्रयोग किया जा रहा है ,वह शब्द एक कॉमन शब्द है जो सभी धर्मों में प्रयोग में आता है। देखिये ,विचार करिए और चिन्तन कीजिये आज दिगम्बर जैन साधुओं को 'महाराज' कह कर सम्बोधन किया जा रहा है ।महाराज शब्द एक कॉमन शब्द है जो सभी धर्मों में प्रयोग किया जाता है। वैष्णो साम्प्रदाय में, ब्राह्मण साम्प्रदाय में व्यक्तियों को महाराज कहा जाता है ।हिन्दू मन्दिर के पुजारियों को महाराज कहा जाता है ,कोई राजा -महराजा होता है उसको भी महाराज कहा जाता है। स्वेताम्बर आमना में चाहे साधु हो या साध्वी हो उनको भी महाराज सहाब कह कर सम्बोधन किया जाता है। और देखिये ,विचार कीजिये कर्नाटक स्थानों में जो रसोई घर में खाना बनाते है उन रसोई घर के खाना बनाने बालो को भी महाराज कह कर सम्बोधन किया जाता है। ऐसा शब्द ,महाराज शब्द एक कॉमन शब्द है। वैष्णो साम्प्रदाय में जितने भी साधु होते है ,चाहे साधवी होती है उनके नाम के बाद भी महाराज शब्द का प्रयोग किया जाता है ।लेकिन इतिहास उठाकर देखा जाये तो दिगम्बर जैन आमना कभी भी ,किसी भी साधु के नाम में महाराज शब्द का उल्लेख नहीं आया है।
श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने प्रमाण देते हुए कहा -तृतीय काल में जब आदिनाथ भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति हुई ,केवलज्ञान होने के बाद समवशरण लगा उस समोशरण में एक कोटा मुनिराजों का कोटा था। उस कोटे में तीन प्रकार के मुनि अवधि ज्ञानी मुनि, मनः पर्याय ज्ञानी मुनि और केवलज्ञानी मुनि विराजमान थे ।वहाँ पर शास्त्र यदि अध्ययन किया जाये तो मुनि शब्द का उच्चारण किया गया ,मुनिराज शब्द का उच्चारण किया गया। जब भरत चक्रवर्ती ने दीक्षा ली तो भरत मुनिराज कहा गया ,बाहुबली ने दीक्षा ली तो बाहुबली मुनिराज कहलाने लगे और सबसे पहले तृतीय काल में मोक्ष जाने वाले जीव का नाम आया तो अनन्तवीर मुनिराज का नज़्म ही उल्लखे में आया है। भरत चक्रवर्ती मुनिराजों को आहार दिया करता था ऐसा भरतेष वैभव ग्रन्थ में वर्णन आया है। जंगल में मुनिराजों का विहार हुआ करता था । कोई भी राजा, सेठ ,साहूकार किसी को भी जब वैराग्य हो जाता था तो वह मुनिराज के पास दीक्षा लेने जाता था ,अगर उसकी पत्नी को वैराग्य होता था तो वह आर्यिका के पास जाती थी। ऐसा ही आगम ग्रंथो में पढ़ने में मिलता है। मुनि ही मुनि दीक्षा देते थे और आर्यिका ही आर्यिका दीक्षा देती थी और दीक्षा लेने के बाद उनको मुनिराज कह कर सम्बोधन किया जाता था। यह परम्परा आदिनाथ से लेकर महावीर भगवान तक अविरल चलती रही और महावीर भगवान के समवशरण में भी मुनिराजों का कोटा हुआ और मुनिराज विराजमान हुए। इस समय जितने भी साधु होते थे उनको भी मुनि कह कर सम्बोधन किया जाता था।
विभंजनसागर जी मुनिराज ने कहा आप वर्तमान में ढाई द्वीप में मुनिराजों की जय बोलते है तो कहते है ढाई द्वीप में तीन कम नौ करोड़ मुनिराजों की जय ।महाराज शब्द का उच्चारण कहि आता ही नहीं है ।आप देखिये जब बालक बर्धमान पलने में झूल रहे थे तो संजयंत ,विजयंत नाम के दो मुनिराज आकाश गामिनी विद्या से जा रहे थे तो उनकी जिज्ञासा का समाधान हो गया। जब शेर की पर्याय में महावीर का जीव हिरण का शिकार कर रहा था तो 2 युगल मुनिराज सम्बोधन देने के लिए आ गए थे। ऐसा ही वर्णन आपने पढ़ा होगा गज कुमार मुनिराज शब्द आया है। सुकुमाल मुनिराज, पाँच पांडव के नाम के बाद भी मुनिराज शब्द आया, अकम्पनाचार्य आदि 700 मुनिराज ,विष्णु कुमार मुनिराज का नाम आया ,अभिनन्दन आदि 500 मुनिराजों का नाम आया जिनको घानी में पेल दिया गया। आप शास्त्र में जहाँ भी वर्णित पढ़ेगे वहाँ मुनि का वर्णन ही पढ़ेगे ।जहाँ- जहाँ सिद्ध क्षेत्र है उन सिद्ध क्षेत्र के जब आप दर्शन करने जाते है वहाँ पर भी यही लिखा होगा कितने मुनि यहाँ से मोक्ष गये, कितने मुनि यहाँ से मोक्ष गये ।कही से साढ़े तीन करोङ ,कही से साढ़े आठ करोड़ ,कही से कोड़ा कोड़ी मुनिराजों का मोक्ष हुआ। कही भी महाराज शब्द का उच्चारण नहीं मिलता।
मुनिश्री ने बताया आप सम्मेद शिखर की वंदना करने जाते है तो सम्मेद शिखर की वंदना करते समय प्रत्येक टोक पर ,कूट पर आप जब अर्घ चढ़ाते है तो आप यही बोलते है 99 कोड़ा कोड़ी,99 करोड़ ,99 लाख ,99 हजार, 999 मुनि मोक्ष गये तिनके चारनार बिंद को हमारा बारम्बार नमस्कार हो जलादि अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा। हर जगह आप मुनि को ही अर्घ चढ़ाते है न की महाराज को। आप जब वर्तमान में आचार्य ,उपाध्याय, मुनि को अर्घ चढ़ाने जाते है तो आप यही बोलते है-' उदक चंदन तन्दुल पुष्प कैश, चारु सुदीप ,सुधुप फ्लार्घ ज्ञे; धवल मंगल गान रवाकुले जिन ग्रहे,मुनिराज मह्म यजे।' मुनिराज शब्द का ही उच्चारण आपने यहाँ पर भी बोला, यहाँ पर भी सम्बोधन किया।
मुनिश्री ने बताया जब आध्यात्मिक कवि भजन बनाते थे तो वो भी मुनिराज ,मुनिवर शब्द का उच्चारण ही अपने भजनों में करते थे ।जैसे- 'होली खेलें मुनिराज ,अकेले वन में...' । 'मुनिवर आज मेरी कुटिया में आये है...' ।जैसे 'ऐसे मुनिवर देखे वन में ,जिनके र्यग द्वेष नहीं तन में...' ।विचार करिए और चिन्तन करिए की हम अपने प्राचीन शब्द को छोड़कर अपने दिगम्बर जैन धर्म के शब्द को छोड़कर अन्य धर्मों के शब्द को प्रयोग में ला रहे है और महाराज कह कर अपने साधु को सम्बोधन करते है। आप खुद विचार करिए और अपने मुख से बोलिये एक बार महाराज कह कर बोलिये और एक बार मुनिराज कह कर बोलिये किसमें सम्मान झलकता है। पाँचो परमेष्ठि हमारे भगवान के तुल्य है ।हम कहते है पंच परमेष्ठि भगवान की जय ।एक तरफ इनको भगवान कहते है और दूसरी तरफ महाराज कह कर छोटा शब्द प्रयोग करते है। हमारा आगम का शब्द है, सम्मानीय शब्द है - "मुनिराज" शब्द , " मुनिश्री" शब्द , मुनिवर ,ऋषिवर ,यतिवर इन शब्दों का प्रयोग हमे साधु को नमस्कार करते हुए करना चाहिए। इसलिये अपने साधुओं को मुनिश्री कह कर सम्बोधन कीजिये और मुनिराज कह कर जयकारा लगाइये ,यही हमारा आगम का शब्द है। हम अपने उस शब्द को भूलें न और हमारी जो प्राचीन परंपरा है उस परम्परा को भूलें न ,उस परम्परा का निर्वाह करें। हमारे साधुओं श्रमण शब्द का प्रयोग किया गया । श्रमण परम्परा हमारे साधुओ की परम्परा है। श्रमण धर्म और श्रावक धर्म का उपदेश महावीर भगवान ने दिया था और उत्कृष्ट शब्दो का प्रयोग जो हमारे धर्म में ,आगम में बताया गया उस धर्म का ,उस शब्द का प्रयोग हम सभी को करना चाहिए। आज पुनः बदलाब लाने की जरूरत है ।जो प्राचीन परम्परा हमारी शब्द की विलुप्त सी हो गई है उसको लाने की आवश्यक्ता है।
मुनिश्री ने बताया आज जो वर्तमान में प्राचीन परम्परा चली है  ,ये आचार्य शान्ति सागर जी मुनिराज के समय से चकी ।आचार्य श्री शांति सागर जी मुनिराज के नाम में महाराज शब्द का उच्चारण पाया गया और वहाँ से जितने भी आचार्य ,उपाध्याय, मुनि हुए सभी के नाम में महाराज शब्द का प्रयोग आने लगा। उसी प्रकार 108 शब्द का प्रयोग ,सागर शब्द का प्रयोग ये भी आचार्य शांति सागर जी मुनिराज के समय से प्रारम्भ हुए। यदि हम आगम ग्रन्थों को पढ़े तो उन आगम ग्रन्थों में कहीँ भी 108, सागर और महाराज इन तीन शब्दो का प्रयोग किसी भी आचार्य, साधु ,मुनियो के नाम में प्रयोग में नहीं आया है। आप प्राचीन आचार्यो के नाम देखे उनका सम्बोधन किया जाता था जैसे- धरसेन स्वामी, पुष्पदंत स्वामी, भूतवली स्वामी, देवशेन स्वामी, अमर चंद्र स्वामी ऐसे - ऐसे स्वामी शब्द का प्रयोग करके सम्बोधन किया गया और आज साधु को पड़गाहन करते है तो पड़गाहन में भी आप यही बोलते है ,हे स्वामी! नमोस्तु, नमोस्तु, नमोस्तु .... ।आप खुद विचार करिए आपने कभी साधु को महाराज कह कर चोक में नहीं बुलाया। स्वामी शब्द उत्कृष्ट शब्द है उस शब्द का प्रयोग किया गया तो यह प्राचीन शब्द है ।प्राचीन में किसी भी साधु के नाम में किसी भी सन्त के नाम में 108, महाराज और सागर इन तीन शब्दो का प्रयोग नहीं हुआ। वर्तमान के 100 साल के इतिहास में इन शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ है ,जो अन्य धर्म से लिया हो ऐसा लगता है। यदि हम चाहे तो अपने दिगम्बर धर्म का जो शब्द है  मुनिराज। उस मुनिराज शब्द को ग्रहण करे और अपने साधुओं को मुनिश्री कह कर, मुनिराज कह कर, यतिवर कह कर, ऋषिवर कह के सम्बोधित करे और एक सम्मान दे ,जो परमेष्ठि पद पर है, परम पद पर है, भगवान के तुल्य है उनको भगवान जैसा सम्मान दे न की कुछ यार, दोस्तों जैसे । सम्मानीय शब्द है उनका प्रयोग करे।
पूज्य विभंजनसागर जी मुनिराज का यह चिन्तन यदि आपको अच्छा लगे तो अपने जीवन में जरूर उतारे और सभी को बताए और सभी को भेजें, प्रचार कर जिससे आज दिगम्बर जैन धर्म के उस उत्कृष्ट शब्द को उपयोग में ला सके। 👌🏻🍃👌🏻🍃
नोट- एक बार जरूर इसे पढ़े।।