श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज के मंगल प्रवचन 20-01-2018 दिन- शनिवार
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बने जहाँ तक इस जीवन में औरों का उपकार करू........🖋
श्री दिगम्बर जैन अटा मन्दिर, ललितपुर ,(उ. प्र.) में श्रमण श्री विभंजनसागर जी मुनिराज ने आज अपनी मंगल देशना के माध्यम से बताया कि मेरी भावना में एक -एक पंक्ति ,एक- एक शब्द में बहुत कुछ छुपा हुआ है। पांच महाव्रत का वर्णन ,सच्चे गुरु का वर्णन और सच्चे देव का वर्णन होने के पश्चात अब पं. जुगल किशोर मुक्तार जी चार कषायों के बारे में बता रहे है।
मुनिश्री ने बताया मेरी भावना में कहाँ गया है -' अहंकार का भाव न रक्खूं ,नहीँ किसी पर क्रोध करू; देख दुसरो की बढ़ती को ,कभी न ईर्ष्या भाव धरू।। रहे भावना ऐसी मेरी, सरल सत्य व्यवहार करू ;बने जहाँ तक इस जीवन में ,औरों का उपकार करू।।' कितनी सुन्दर बात बताते हुए पं. जुगल किशोर मुक्तार जी ने कहाँ- 'अहंकार का भाव न रक्खूं' इसका मतलब अभिमान, घमण्ड, गर्व, ईगो सब पर्यायवाची शब्द है माँ कषाय के। जीवन में कभी किसी बात का घमंड नहीं करना, मान नहीं करना ।आगम में आठ प्रकार के गर्व बताये गये है, मान बताये गये है-
1. ज्ञान का मद
2. पूजा का मद
3. कुल का मद
4. जाती का मद
5. बल का मद
6. रिद्धि का मद
7. तप का मद और
8. शरीर का मद
इन आठ प्रकार के मदो में जो व्यक्ति मदमस्त रहता है वह व्यक्ति संसार में ही चतुर्गति में ही भ्रमण करता रहता है। मान कषाय करने बाला आगे चलकर तिर्यंच की पर्याय में हाँथी बन कर भी जन्म लेता है।
मुनिश्री ने बताया यदि अपने जीवन को सुख मय, शांति मय बनाना चाहते हो तो मान कषाय का त्याग करो। मान कषाय से बचने के लिए दो बातों को याद रखो और दो बातों को भूल जाओ ।याद रखने बाली बात कोई है तो पहली अपनी मौत और अपने भगवान को हमेशा याद रखना। दूसरी बात अपने अतीत और अपनी औकात को हमेशा याद रखना। इसके साथ ही दो बातों को भूलना भी जरूरी है -पहली बात किसी को दान देकर भूल जाना और दूसरी बात किसी पर उपकार करके भूल जाना ।निश्चित ही आप मान कषाय से बच सकते है। दूसरी कषाय के बारे में बताते हुए पं. जी ने बताया - 'नहीँ किसी पर क्रोध करू' इसका तातपर्य है क्रोध कषाय अग्नि के समान है जो दूसरों को जलाये या न जलाये सबसे पहले स्वयं को तो जलाती ही है ।परिणाम खराब करने के बाद अपने मन मस्तिष्क में विकृति को लाने बलि क्रोध कषाय ही होती है। क्रोध हमारा स्वभाव नहीं हमारा स्वभाव क्षमा है। जब व्यक्ति स्वभाव से हट कर विभाव की ओर जाता है क्रोध कषाय में आकर न जाने कितने अशुभ कार्य कर बैठता है। और इस क्रोध कषाय के वशीभूत होकर न जाने कितनों ने अपने प्राण गवा दिए। इसलिये क्रोध कषाय छोड़ने योग्य है।
मुनिश्री ने तीसरी कषाय के बारे में बताते हुए बताया -' देख दुसरो की बढ़ती को कभी न ईर्ष्या भाव धरू' अर्थात में लोभ कषाय नहीं करू ।यदि किसी के पास पैसा बढ़ रहा है वो उसके पुण्य के उदय से बढ़ रहा है। मेरे पास पैसा आएगा तो मेरे पुण्य उदय से आएगा ।मैं उसकी वृद्धि को देखकर जलन के भाव क्यों रखु? अपने निर्मल भाव ,निर्मल परिणामो को बनाकर सन्तोष रखु। जो है, जैसा है, जितना है मेरे पुण्य उदय से मिला है ,बहुत अच्छा है। चौथी कषाय के बारे में पं. जुगल किशोर मुक्तार जी में मेरी भावना की पंक्ति में बताया -'रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करू' अर्थात में सरल बनू मायाचारी नहीं करू ।जो मन में है सो वो वचन में और जो वचन में है सो वो काय में करने का प्रयाश करो, अंदर बाहर एक समान। जैसे एक छोटा सा बालक होता है जब उसको कोई एक थप्पड़ मारता है तो वह रोने लगता है और उसके सामने यदि एक चुटकी बजा दी जाये तो वह बच्चा हसने लगता है। उसके अंदर कोई मायाचारी नहीं ,छल कपट नहीं वः अंदर बाहर एक समान है। ऐसे ही सरल व्यवहार ,सत्य व्यवहार मैं। भी करू ऐसी भावना भाता हूँ।
मुनिश्री ने बताया व्यक्ति को जितना बन सके औरों पर उपकार करना चाहिए, औरों की मदद करनी चाहिए ।जीवन छोटा सा है न जाने कब आयु क्षय को प्राप्त हो जाये ,मृत्यु प्राप्त हो जाये। इसलिये जितना समय मिला अपने के साथ -साथ दुसरो का भी कल्याण करने की भावना को रखे  और जितना बन सके उन पर उपकार करें ।लेकिन ध्यान रखना उपकार करने के बाद याद मत रखना भूल जाना। याद रखोगे मान, अभिमान, घमण्ड आएगा इसलिये इन चार कषायों को त्याग कर के हम भी अपने जीवन को सरल बना सकते है और उत्कृष्टता की ओर ले जा सकते है।🌷🌷