मुनिश्री ने अपने प्रवचन के माध्यम से बताया कि जिन देव बनने से पूर्व निज देव से मिलना पड़ता है ।जो निज देव से मिल लेता वह नियत जिन देव बनता है। निज नाथ को अवलोकन करो यदि निज को जिन नाथ बनाना है तो ,-
मुनिश्री ने बताया कि जैसे किसी को गड़ा हुआ धन मिल जाये तो वह बड़ा ही आनन्दित होता है और उसको छुपा कर रखता है। वैसे ही निरग्रंथ दिगम्बर साधुओं को सम्यग्दर्शन ,सम्यग्ज्ञान ,संयचारित्र रूपी रत्न मिल जाते है ।उनको भी वे छुप- छुप के निहारते है और आनन्दित होते है। विचार करिए जब जड़ रत्नों में आनन्द आता है तो चेतन रत्नों में कितना आनन्द आएगा? ये है चेतन की अनुभूति ये है आत्म रत्नों की अनुभूति ।आत्म श्रमण देह से दिखते गरीब है कुछ भी नहीं है ।धागा मात्र भी नहीं रखे हुए है फिर भी इन से बड़ा धनवान कोई नहीं होता ।
मुनिश्री ने बताया व्यवहार दृष्टि से पञ्च परमेष्ठि वंदनीय है। वे पंच परमेष्ठि निर्बन्धनीय हो चुके है ,निरबन्ध हो रहे है ,वे ही मेरे बन्दनीय है ।पंच परमेष्ठि संज्ञा वंदनीय है ।पंच परमेष्ठि के गुण वंदनीय है, पंच परमेष्ठि की स्थापना वन्दनीय है, पंच परमेष्ठि भाव वंदनीय है ।परन्तु पंच परमेष्ठि नाम निक्षेप वंदनीय नहीं है वे ही पंच परमेष्ठि वंदनीय है ,जो तद -तद गुणों से युक्त है ।चाहे वो निज क्षेत्र में हो चाहे पर क्षेत्र में हो ,परमेष्ठि पद ऐसा लौकिक पद है जिसका व्यक्तिगत कोई परिचय नहीं होता ।
मुनिश्री ने बताया ये परमेष्ठि पदो से युक्त ,गुणों से युक्त है चाहे भरत क्षेत्र के परमेष्ठि हो और चाहे ऐरावत या विदेह क्षेत्र के परमेष्ठि हो या ढाई द्वीप में जो -जो परमेष्ठि है । क्योंकि जिनागम चेहरे की पूजा नहीं करता है चारित्र की पूजा करता है । नाम की पूजा नहीं करता है गुणों की पूजा करता है ,चरणों की पूजा नहीं करता आचरण की पूजा करता है ,जिसने भी आचरण धारण कर लिया ,चारित्र धारण कर लिया ,गुणों को धारण कर लिया वही पूज्य बन जाता है वंदनीय बन जाता है।
मुनिश्री ने बताया श्रावक यदि सन्त का चिंतन करे तो वह निर्जरा स्थान को प्राप्त हो रहा है और यदि सन्त श्रावक का चिन्तन कर रहे है तो बन्ध स्थान को प्राप्त हो रहे हो। श्रावक साधु को पुकारे ,स्मरण जरके तो वह निर्ग्रंथो का भक्त कहलायेगा और निरग्रंथ कहि पुकारे तो रागी कहलायेगे ,दोनों में महान अंतर है ।आज हर पुरुष अपने आपको तीर्थ पुरुष कहता है और जहाँ भक्तों की भीड़ मिल जाती है ,वहाँ बिना गुणों की प्राप्ति के जीव भगवत्ता प्रकट करने लगता है। भैया भक्तों की भीड़ भगवत्ता की पहचान नहीं है ,गुणों की भीड़ भगवत्ता की पहचान है। साधु की पहचान ,परमात्मा की पहचान लोक की भीड़ से नहीं करना ,भगवंतों अरिहंतो की पहचान वीतरागता से करना ।अर्हंत की पहचान है वीतरागता , सर्वज्ञता, हितोपदेशता और निर्ग्रंथो की पहचान है निष्प्रहता ।निष्प्रहता है जैन मुनि की पहचान है।
मुनिश्री ने बताया श्रावक और साधु दोनों का होना अनिवार्य है पर दोनों की बीच दूरियां होना चाहिए यदि दोनों ज्यादा समीप होंगे तो वीतरागता समाप्त होती है निष्प्रहता का नाश होता है इसलिए दूरियां बहुत जरूरी है। श्रावक अपने कर्तव्य ,अपने धर्म का पालन करे और साधु अपने कर्तव्य और धर्म का पालन करे लेकिन दोनों का होना आवश्यक है क्योंकि धर्म एक रथ है उस रथ के दो पहिए है -एक श्रावक का पहिया ,एक साधु का पहिया यदि दोनों में से एक पहिया निकल जाये तो रथ आगे बढ़ने वाला नहीं है धर्म यदि आगे बढ़ेगा तो श्रावक को और साधु के साथ होने से ही बढेगा।
मुनिश्री ने बताया श्रावक धार्मिक आयोजनों का अनुष्ठान करता है ,आयोजन करता है और सन्त उसमे आपने आशीर्वाद प्रदान करता है दोनों के सहयोग से वो कार्यक्रम होता है। आज हटा जी अतिशय क्षेत्र का जो वार्षिक मेला सम्पन्न होने जा रहा है ये सभी श्रावको की भक्ति है , पुरुषार्थ है जो इतना बड़ा आयोजन जिर्विघ्न सम्पन्न हुआ ।गुरुओ का आशीर्वाद जरूरी होता है क्योंकि उसके बिना भी कुछ नहीं होता ।हमारा पूरा आशीर्वाद सारी समाज को है कि इसी प्रकार प्रतिवर्ष मेले का आयोजन करके धर्म की प्रभावना में अपना सहयोग करे और इस अतिशय क्षेत्र में जो भी आवश्यकता है उन आवश्यताओ को पूर्ण करे और क्षेत्र को अच्छे से अच्छा ,सुन्दर से सुंदर ,मनोज्ञ से मनोज्ञ बनाने का प्रयास करे जिससे पुरे भारत के लोग ,दूर -दूर से चंद्रप्रभु भगवान के दर्शन करने के लिए यहाँ आये और मन में शान्ति को प्राप्त करे।
मुनिश्री का कल दोपहर 2 बजे मलगुवां के लिए मंगल विहार होगा और वहां से द्रोणगिरि की आहार जी, पपोरा जी क्षेत्रो के दर्शन के लिए मुनिश्री का विहार होगा।🌹🌹🌹