णमोकार महामंत्र में सबसे पहले अरहंत परमेष्ठी को नमन किया है, आज हम अरहंत भगवान् के स्वरूप को जानेंगे.
- चार घातिया कर्मों के क्षय होने से जिन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है, उन्हें "केवली भगवान" कहते हैं ! उन्हें ही "अरहंत भगवान" भी कहते हैं !
- सिर्फ़ तीर्थंकर भगवान ही अरहंत नही होते हैं, बिना तीर्थंकर प्रकृति का बँध किए भी अरहंत होते हैं, जिन्हे "केवली" कहते हैं !
= केवली भगवान 7 प्रकार के होते हैं :-
१- तीर्थंकर केवली
२- सामान्य केवली
३- सातिशय केवली
४- उपसर्ग केवली
५- मूक केवली
६- अन्तकृत केवली, और
७- अनुबद्ध केवली
- तीर्थंकर भगवान का "समवशरण" लगता है, उसी प्रकार देवो के द्वारा बाकी की केवली अरहंत भगवानों के "गंध कुटी" की रचना होती है , किंतु मूक केवली और अन्तकृत केवली के यह भी नही होती है.
तो कैसे हैं वो अरहंत भगवान् ???
*** वह 18 दोषों से रहित और 46 गुण सहित हैं !
18 दोष कौनसे हैं जिनसे अरहंत भगवान रहित हैं, माने जो उनके नही होते हैं ?
जन्म ज़रा तृषा क्षुधा विस्मय आरत खेद,
रोग शोक मद मोह भय निद्रा चिंता स्वेद !
राग द्वेष और मरण युत , ये अष्ठादश दोष,
नाही होत अरहंत के, सो छवि लायक मोष !!
१ जन्म, २ ज़रा, ३ तृषा, ४ क्षुधा, ५ विस्मय, ६ अरति, ७ खेद, ८ रोग, ९ शोक, १० मद,
११ मोह, १२ भय, १३ निद्रा, १४ चिंता, १५ स्वेद, १६ राग, १७ द्वेष और
१८ मरण
और 46 गुण कौनसे हैं , जिनसे अरहंत (तीर्थंकर) भगवान युक्त हैं :-
चौतिसों अतिशय सहित , प्रातिहार्य पुनि आठ !
अनंत चतुष्टय गुण धरें , यह छियालिसों पाठ !!
34 अतिशय ( चमत्कार-पूर्ण/अदभुत बातें)
8 प्रातिहार्य
4 अनंत गुण
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46 मूलगुण
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नोट :- ये 46 मूलगुण पांच-कल्याणक वाले तीर्थंकर भगवान की ही होते हैं, विदेह क्षेत्र के तीर्थंकर और अन्य केवली के ये 46 मूलगुण हो ऐसा आवश्यक नहीं है !
34 - अतिशय (चमत्कार-पूर्ण/अदभुत बातें)
तीर्थंकर भगवान् के इनमे से :-
10 अतिशय - जन्म से ही होते हैं
10 अतिशय - केवलज्ञान होने पर स्वयं होते हैं, और
14 अतिशय - देवों के द्वारा होते हैं.
----- जन्म के 10 अतिशय -----
अतिशय रूप सुगंध तन , नाहि पसेव निहार !
प्रिय हित वचन अतुल्य बल , रुधिर श्वेत आकार !!
लक्षण सह्सरू आठ तन , समचतुषक संठान !
वज्रऋषभनाराचजुत, ये जनमत दस जान !!
1- अत्यंत ही सुंदर शरीर - जिनेन्द्र देव के शरीर की प्रशंसा व स्तुति इन्द्रादि भी अपनी सहस्त्र मुखों से करते समय असमर्थ हो गए, तो फिर हम और आप तो हैं ही क्या ?
2 - सुगंध तन - उनके शरीर की सुगंध भर से ही रोगियों के रोगों का नाश हो जाता है.
3 - अस्वेद - भगवान् को पसीना नहीं आता है !
4 - मल-मूत्र रहित - भगवान् की पाचन शक्ति ऐसी होती है की उन्हें जीवन भर मल-मूत्र नहीं होता है.
5 - हित-मित वचन - हित मतलब सभी जीवों के लिए हितकारी और मित का मतलब संदेह उत्त्पन्न न करने वाले वचन !
6 - अतुल्य बल - उनके शरीर के पराक्रम के सामान किसी अन्य का पराक्रम/बल नहीं है.
7 - रुधिर श्वेत - भगवान् का रक्त दूध के समान सफ़ेद होता है.
8 - लक्षण सह्सरू आठ तन - जिनेन्द्र देव के शरीर पर 1008 शुभ लक्षण/चिन्ह होते हैं. ये जन्म से ही होते हैं.
जैसे :-
श्री वृक्ष , शंख , कमल , स्वस्तिक , शक्ति , चक्र ... इत्यादि ऐसे १००८ शुभ चिन्ह होते हैं !!!
9 - समचतुरस्त्र संठान - माने उनके शरीर ऊंचे, नीचे और मध्य में समान भाग से यथायोग्य आकृति वाला है.
10 - वज्रऋषभनाराच संहनन - माने उनके शरीर की हद्दियां, हड्डियों के जोड़, जोड़ों की कील वज्र के समान मज़बूत होती हैं.
-- संहनन/संस्थान (Read in L2 Topics) पर भी देखें ...
केवलज्ञान होने पर होने वाले 10 अतिशय :-
1) योजन सत-इक में सुभिख :- माने, केवली तीर्थंकरों के चारों और 100 योजन अर्थात 400 योजन तक सुभिक्ष (सुकाल) होता है, अकाल नहीं होता.
2) गगन-गमन :- जिनेन्द्र भगवान् का केवल-ज्ञान होने के बाद पृथ्वी पर गमन नहीं होता ! वह धरती से ऊपर चलते हैं.
षट-काय के जीवों की बाधा रहित आकाश में ही आवागमन होता है.
3) मुख चार :- मुख तो 1 ही है, किन्तु जिनेन्द्र भगवान् के अतिशय से 4 मुख दिखाए पड़ते हैं.
कारण ये है की देव, मनुष्य और त्रियंच चारों ही तरफ से भगवान् के दर्शन करते हैं.
4) उदया का अभाव :- माने जहाँ भगवान् विराजते हैं, वहाँ उनके शरीर से किसी भी सूक्ष्म स्थूल जीव का घात नहीं होता है.
और साथ ही उस क्षेत्र में समस्त जीवों के भी दया भाव हो जाते हैं.
5) उपसर्ग नहीं :- जहाँ पर केवली भगवान् का समवशरण तिष्ठता है, वहाँ पर किसी भी प्रकार का उपसर्ग या उपद्रव नहीं होता है.
6) नाही कवलाहार :- केवलज्ञान हो जाने पर उनको भूख नहीं लगती है, न वे भोजन करते हैं, अनंत बल के कारण उनका शरीर बलशाली और ऊर्जावान बना रहता है.
7) सब विद्या-इश्वरपनो :- केवलज्ञान हो जाने के कारण उनको समस्त प्रकार का पूर्ण ज्ञान हो जाता है, कोई भी विद्या ज्ञान उनके लिए अपरिचित नहीं रह जाता.
8) नाहि बढें नख केश :- भगवान् के नाखून और बाल भी नहीं बढ़ते.
9) अनिमिष-द्रग :- भगवान् के नेत्र हर समय खुले रहते हैं - वे अपनी पलकें नहीं झपकते.
10) छाया-रहित :- उनके शरीर की परछाई भी नहीं पड़ती है.
अतिशयों के लिए समवसरण वाला चित्र देखें
देवकृत चौदह अतिशय
----- देवों के द्वारा होने वाले 14 अतिशय -----
देव- रचित हैं चार दश, अर्द्ध-मागधी भाष !
आपस मांही मित्रता, निर्मल दिश आकाश !!
होत फूल फल ऋतु सबें , पृथ्वी कांच समान !
चरण कमल ताल कमल हैं, नभ ते जय जय वान !!
मंद सुगंध बयार पुनि, गंधोदक की वृष्टि !
भूमि विषै कंटक नहीं, हर्षमयी सब स्रष्टि !!
धर्मचक्र आगे रहे, पुनि वसु मंगल सार !
अतिशय श्री अरिहंत के, ये चौंतीस प्रकार !!
1) अर्द्ध-मागधी भाषा :- माने, भगवान् की भाषा को मगध देव सर्व जीवों की भाषा मय कर देते हैं.
वहाँ जो जीव सुन रहा होगा, उसे उसकी ही भाषा में सुनाई पड़ेगा.
और, अर्ध-मागधी भाषा का, प्रत्येक शब्द 1 योजन अर्थात 4 कोस तक सुनाई देता है.
2) आपस मांही मित्रता :- सारे जीवों में आपस में मित्रता का भाव हो जाता है.
हिरण-शेर, सांप-नेवला जैसे बैरी जीव भी मैत्री-भाव को धार कर, भगवान् के निकट एकत्र हो बैठते हैं.
3) निर्मल दिश :- सभी दिशाएं, जहाँ केवल ज्ञान युक्त भगवान् तिष्ठते हैं, वहाँ धूल भरी आंधी और मेघों के द्वारा बारिश नहीं होती है, और इस प्रकार सभी दिशाएं स्वच्छ रहती हैं.
4) निर्मल आकाश :- आसमान भी स्वच्छ होता है.
5) होत फूल फल ऋतु सबें :- देव उस स्थान का वायु-मंडल ऐसा विचित्र कर देते हैं, की सामान्यतः अलग-अलग ऋतुयों में खिलने वाले फल और फूल, अपने निज समय को छोड़ कर एक ही समय में फलने और खिलने लगते हैं.
6) पृथ्वी कांच समान :- देव, एक योजन तक की पृथिवी को त्रण-कंटक आदि रहित दर्पण के समान स्वच्छ कर देते हैं.
7) चरण कमल ताल कमल :- भगवान् के विहार के समय, देव उनके चरणों के नीचे स्वर्णमय कमल के फूल बनाते जाते हैं !
8) नभ ते जय जय वान :- देव, आकाश में भगवान् की जय-जयकार करते हैं.
9) मंद सुगंध बयार पुनि :- माने, शीतल, मंद सुगन्धित पवन का चलना, जिसके स्पर्श-मात्र से असाध्य रोगियों के रोग दूर हो जाया करते हैं.
10) गंधोदक की वृष्टि :- सुगन्धित जल की वर्षा होती रहती है.
11) भूमि विषै कंटक नहीं :- पवन कुमार जाति के देवों के द्वारा, वहाँ की भूमि पर कांटे, कंकड़ आदि चुभने वाले पदार्थ नहीं रहता.
12) हर्षमयी सब स्रष्टि :- चारों और हर्ष का वातावरण हो जाता है. समस्त जीव आनंदमयी हो जाते हैं.
13) धर्मचक्र आगे रहे :- सूर्य के समान चमकदार धर्मचक्र, विहार के समय देव उसे भगवान् के आगे आगे लेकर चलते हैं.
14) पुनि वसु मंगल सार :- छत्र, चमर, घंटा, ध्वजा, झारी, पंखा, स्वस्तिक, और दर्पण खंड, ये 8 मंगल द्रव्य हैं, जो भगवान् के निकट रखते हैं.
आठ (8) प्रातिहार्य
तरु अशोक के निकट में, सिंहासन छविदार !
तीन छत्र सिर पर लसैं, भामंडल पिछवार !!
दिव्य ध्वनि मुख से खिरे, पुष्प वृष्टि सुर होए !
ढारे चौसंठ चमर चष, बाजे दुन्दुभि जोए !!
1) तरु अशोक :- अशोक वृक्ष का होना.
जहाँ केवली भगवान् तिष्ठते हैं, वहाँ जिनेन्द्र भगवान् के शरीर से 7 गुना(times) ऊँचा 1 अशोक का वृक्ष होता है.
2) सिंहासन छविदार :- दिव्य अति-सुंदर सिंहासन.
उस अशोक वृक्ष के समीप एक सुंदर सिंहासन होता है, भगवान् उसपर 4 अंगुली ऊपर अधर में विराजते हैं.
3) तीन छत्र :- भगवान् के सिर पर छत्रों का ढुरना.
जिनेन्द्र भगवान् के मस्तक पर चन्द्रमा और सूर्य की प्रभा के प्रताप का हरण करने वाले और मोतियों की माला के समूह से बड़ी है जिनकी शोभा, ऐसे 3 छत्र भगवान् की तीन लोक की परमेश्वरता को प्रकट करते प्रतीत होते हैं.
4) भामंडल पिछवार :- कैसा है ये भामंडल ?
*** जिसमें भव्य राशि के सात भव झलकते हैं !
3 पिछले भव, 3 आने वाले और 1 वर्त्तमान भव, ऐसे 7 भव जिनेन्द्र भगवान् के पीछे भामंडल में दीखते हैं.
5) दिव्य ध्वनि :- भगवान् के मुख से निरक्षर ध्वनि खिरना.
भगवान् की दिव्या ध्वनि खिरते समय होंठ, तलु, रसना(जीभ), दांत आदि में क्रिया नहीं होती है.
ये दिव्य ध्वनि मोक्ष का मार्ग बताने वाली है.
6) पुष्प वृष्टि :- फूलों की वृष्टि होना.
मंदार, सुंदरनमेरु, सुपारीजात आदि कल्प-वृक्षों के पुष्पों की वर्षति जो की देवों के द्वारा की जाती है.
7) ढारे चौसंठ चमर :-यक्ष जाति के देवों के द्वारा भगवान् के दोनों तरफ ३२-३२, कुल 64 चमरों का ढोरना.
और,
8) बाजे दुन्दुभि :- भगवान् के समवसरण में देव मनोहर सुरीला दुन्दुभि बाज बजाते हैं.
अनंत (4)चतुष्टय गुण
----- अनंत चतुष्टय -----
ज्ञान अनंत अनंत सुख, दरश अनंत प्रमान !
बल अनंत अर्हन्त सो, इष्ट देव पहचान !!
सकल परमात्मा कि आत्मा के 4 घातिया कर्म दूर हो जाते हैं, इस कारण 4 अनंत गुण प्रगट होते हैं.
1) ज्ञानावर्णीय कर्म के मिटने से - अनंत ज्ञान प्रगट होता है !
2) दर्शनावर्णीय कर्म के नाश से - अनंत दर्शन प्रगट होता है !
3) मोहनीय कर्म को नाश कर - अनंत सुख/सम्यक्त्व प्रगट होता है !
और,
4) अन्तराय कर्म के अभाव से अनंत बल प्रगट होता है !
कर्मों के विषय पर बाद में चर्चा करेंगे !!!
जिसे हम ज्ञान, बल और सुख मानकर खुश होते रहते हैं, वो दुःख ही है और आगे भी दुःख देने वाला ही है.
इन 46 गुणों में से अनंत चतुष्टय आदि कुछ गुण अन्य केवलियों के भी होते हैं !!!
इन 46 गुणों में से कुछ चीज़ों, जैसे आठ प्रातिहार्य, अष्ट मंगल द्रव इत्यादि को जानने हेतु, हम समवसरण की रचना देख सकते हैं, इसी अपेक्षा से भगवान् महावीर स्वामी के समवसरण की रचना की एक फोटो साथ में संलग्न कर रहे हैं !
निर्मल दिशायें, निर्मल आकाश, पृथ्वी दर्पण के समान स्वच्छ, चरण कमल, हर्षमयी स्रष्टि, 8 मंगल द्रव्य, तरु अशोक, सिंहासन छविदार, तीन छत्र सिर पर, भामंडल, पुष्प वृष्टि, चौसंठ चमर ढुराते देव, दुन्दुभि बजाते देव ... इत्यादि इस चित्र के माध्यम से जाने जा सकते हैं !
सो, इस प्रकार अरिहंत परमेष्ठी के ४६ गुणों का वर्णन समाप्त हुआ !
आज के लिए इतना ही ...
--- अरिहंत परमेष्ठी भगवान् की जय ---
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