आदिनाथ प्रभु जीवन चारित्र :
प्रथम भव :
पश्चिम महाविदेह क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठित नगर मे धनशेठ नामक शेठ था
एक बार वो धर्म धोष सूरीश्वर और गांव के लोगों को लेकर वसंतपुर की और चल पडा
ऊसके साथ बैल गाडी धोडा ऊट भी साथ था
रास्ते में बरसात के कारण जंगल में रूकना पडा
इस वजह से पानी और अन्न खलास हो गया
दुख के कारण गुरु भः को भूल गए
एक रात्रि अर्धजागृत अवस्था में गुरु भः की।याद आइ
सबेरे जाकर देखा तो सब साधु भः साधना मे लिन थे
जाकर धनशेठ ने सबकी माफी मांगी और गोचरी का लाभ देनेको कहा
इस समय इसके पास दुसरा आहार न होने की वजह से बहुत भाव से धी वहोराया
और रोज जिनवाणी सुनने लगा
वसंतपुर पहुंच सब लोग अपने स्थान गये
धनशेठ अपने गांव आकर धर्म की सुदर आराधना करने लगा
आयुष्य पूर्ण होते नवकार मंत्र का जप करते मृत्यु हूआ
यह ऋषभदेव प्रभू का प्रथम भव
2 ) ऋषभदेव प्रभू का दुसरा भव :
गुरु व्यावच और धर्म के प्रभाव से धनशेठ का जिव
जंबुद्रीप के मध्य में मेरू पर्वत के ऊतर दिशा में ऊतर कुरू क्षेत्र में युगलीक नर के रुप जन्म हुआ
यहा युगल को जन्म दे कर छ महिने के।बाद मा बाप मृत्यु हो देवलोक में जाते हैं
यहा ऊनपचास दिन के बाद बालक मा बाप से स्वाधीन होता है
यहा
ऋषभदेव प्रभू के दुसरे भवमे तिन पल्योपम आयुष्य पूर्ण कर
देवलोक में च्यवन हुआ
देवलोक मे जन्म नहि होता है
पुष्प की शया मे बतिस वरस के युवा जैसा खडा होता है
3) ऋषभदेव प्रभू का तिसरा भव :
सौधर्म देवलोक मे आज एक आनंद मय बनाव हुआ
जहां सुख समृद्धि अमाप है जहां सौंदर्य वाली देवांगना बार बार नृत्य करति है वहा
ऊपपात खंड मे पुष्प से भरी शया की ऊपरवाली कंबल मे कंपन हुआ और एक युवा देव खडा हुआ
ऊसने अपने अवधि ज्ञान से अपना पूर्व भव देखा
यह युवा ऋषभदेव प्रभू का तिसरा भव था
रंग राग मे बरसो निकल गये
और देव लोक के नियम अनुसार छे महिना आयुष्य बाकी रहते गले मे पहनी फुल की माला मुरझाने लगी
और आयुष्य पूर्ण होते यह देव ने पृथ्वी लोक में जन्म लेने का समय आ गया
इस तरह ऋषभदेव प्रभू का तिसरा भव पूर्ण हुआ
4 ) चोथा भव महाबल :
गंध समृद्धि नगर के राजा शतदल की रानी चंद्रकांता ने पुत्र को जन्म दिया
ऊसका नाम रखा महाबल यह प्रभू का चोथा भव
महाबल बडा हुआ तो विनयवंति के साथ ऊसका विवाह कर दिया
और ऊसको राज सोप कर राजा रानी ने दीक्षा लि
मित्रों की वजह से महाबल धर्म को भुल मोज शोख मे मशगूल हो गया
यह देख मंत्री श्वर स्वयबुध्धि को दुख हुआ और राजा को धर्म के राहपर लाने का अवसर ढुढने लगा
एक दिन राजा महाबल खुश था तब मंत्री ने मौका देखकर कहा राजन
धर्म सुखो का कारण है और धर्म बिना जीवन फोक है
तब दुसरा मंत्री बोला धर्म अधर्म जैसी कोई चीज नहीं है आप मोज शोख मे मग्न रहो ऊसकी बात पे मत ध्यान दे
तब मंत्री श्वर खडा होकर बोले आपके माता पिता धर्म के राहपर चलते थे आप भी यह राहपर चलो
चर्चा सुनकर ऊसका आत्मा जागृत हुआ
और मंत्री जी की सलाह अनुसार दीक्षा अंगिकार की और
बायीस दिन का अनशन प्रभू भक्ति मे लिन समाधि पूर्वक कालधर्म पामे
इस तरह पूर्व भव के संस्कार के कारण धर्म मे वापस। आकर भव सुधर गया
इस तरह प्रभु का चोथा भव पूर्ण हुआ
5) प्रभू का पाचवा भव :
बार देवलोक में से दुसरा इशान लोक के श्वीपद नाम के विमान में ललितांग नाम के देव का च्यवन हुआ
यह प्रभू का पाचवा भव
ललितांग ने अवधि ज्ञान से पूर्व भव देखा जिनालय जाकर प्रभू की पूजा भक्ति की
दिन बितने लगे और वो पत्नी स्वयप्रभा मे पागल बन गया
एक दिन पत्नी का मृत्यु होनेसे ललितांग विलाप करने लगा
तब दढधर्म नामक देव ने स्वयप्रभा के बारे मे।बताते हुए कहा
ऋषभदेव प्रभू
6) छठ्ठा भव :
लोहार्गल नगर के राजा सुवर्ण जंध राजा की रानी लक्ष्मी ने पुत्र को जन्म दिया
राजा ने नाम रखा वज्रजंध
वज्रजंध बडा हुआ तब श्वीमति नामक कन्या के साथ ऊसका विवाह कर
राजा रानी ने असार संसार को छोड दीक्षा लि और वज्रजंध राजा हुआ
ऊसका पुत्र बडा हुआ तब वज्रजंध दुसरे राज्य पर चढाइ कर राज्य जित लिया
वापस आते वक्त दो केवल ज्ञानी मुनि मिला
ऊसकी देशना सुन नगर में पहुच कर दिक्षा लेने का सक्लप किया
दुसरे दिन पुत्र को राज्य सोप दिक्षा लेने के भाव से सो गए
लेकिन कुदरत ने कमाल कर दिया
राजकुमार को राज्य लेने की लालसा हुइ और स्वार्थ मे अंध पुत्र ने यह सो रहे थे वहां झेरी धुआं जलाया
इसकी वजह से दोनों की मृत्यु हुई
लेलेकिन दिक्षा के भाव की वजह से कुरु क्षेत्र में युगलीक बने
इस तरह ऋषभदेव प्रभू का छठा भव पूर्ण हुआ
7) ऋषभदेव प्रभू का सातवां भव :
ऊतर कुरू क्षेत्र में आज युगलीक ने जन्म लिया
यह युगलीक ललितांग देव के भव मे पति पत्नी थे वज्रजंध के भव मे सथ थे और युगलीक भी साथ में जन्म लिया
यह हे संसार की माया जिसने प्रभू को भी न छोडा
यह दोनों युवा होते युगलीक धर्म अनुसार पति पत्नी बने
यहां जो ईच्छा होती वो कल्पवृक्ष पूर्ण करते जैसे
मधांग कल्पवृक्ष मध देते
तुर्याग वाजित्र देते थे
भृगाग के पास बरतन मिलता
दीप शीखा दिपक का काम करते
ज्योतिष्कांग बहुत प्रकाश देते
चित्राग के पास पुष्प माला और
मण्यंग आभूषण देता
चित्ररस मनवांछित खाना देते
गेहकार धर और
अनाग्नय वस्त्र
ईस तलह भोग सुख मै आयुष्य पूर्ण होते देव देवि हुए
एसी तरह प्रभु का सातवां भव पूर्ण हुआ
8) प्रभू का आठवा भव :
सौधर्म नामक देव लोक मे जहा सुख ज सुख है
इद्र महाराज के दरबार में अप्सरा ए नृत्य कर रही है
देवलोक में जन्म एटले पूर्व भव मे किया पुण्य खतम करने का भव
एसे देवलोक में एक देव और देवी का च्यवन हुआ
देव लोक में जन्म नहि होता है
पुष्प की शया मे बतिस वरस के युवा जैसा फूलों की शया मे से देव खडा होता है
एसे देवलोक में जन्मो से राग के कारण दोनों का पती पत्नी के रुप जन्म हुआ
आयुष्य खतम होने मे छे महिना बाकी रहा तब ऊसके गले की फुल की माला सुकने लगी
और आयुष्य पूर्ण होते देव भव पूर्ण हुआ
एसी तरह ऋषभदेव प्रभू का आठवा भव पूर्ण हुआ
और वैध जिवानंद के नाम नवमा भव हुआ
9) ऋषभदेव प्रभू का नवमा भव :
क्षितिप्रतिष्ठित नगर मे जिवानंद वैध के नाम प्रभू का नवमा भव हुआ
और ऊसकी पत्नी शेठ पुत्र केशव
हुआ
ऊसका महीधर सुबुधि पूर्णभद् और गुणाकर भी मित्र था
यह छ मित्र साथ में बडा हुआ
एक दिन यह छ मित्रो ने कृष रोगी मुनि को देख जिवानंद ऊसका उपचार करने के लिए तैयार हुए
दवा बनाने के लिए वो एक शेठ की दुकान पर गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल लेने गए
इस चीज का उपयोग मुनि का रोग दूर करने के लिए है यह मालूम होते बहोत आग्रह करने पर भी पैसा नहीं लिया
और यह सबके कार्य की अनुमोदना की
यह सब चीज लेकर छे मित्र जहा मुनिराज काऊसग ध्यान में खडे थे वहा आए
मुनि भः की अनुमति ले कर
जिवानंद ने अपने पास था वो लक्षपाल तेल उसके शरीर पर लगा कर रत्नकंबल शरीर पर रखी दवा की वजह से कृष रोग के कृमि रत्नकंबल में आगये यह जिवो को गाय के कलेवर मे संक्रित किया
एसे दो बार करने से मुनिभः की काया निरोगी हो गइ बाद में मुनि भःकी शाता के लिए शरीर पर गोशीर्षचंदन का विलेपन कर मुनि भः।को वंदन किया
बाद में बाकी रही चीजो को बेच आयी मुद्रा में सुर्वण डाल शिखर बंध जिनालय बनवाया
प्रभू की भक्ति करते भाव जागृत होने से दीक्षा लि
सयंम जिवन की सुदर आराधना करते आयुष्य काल पूर्ण होने वाला जाण छे मित्रो ने अनशन कर नवकार मंत्र का जाप करते कालधर्म पामे
10) प्रभू का दसवा भव महाविदेह क्षेत्र में हुआ
ऋषभदेव प्रभू के जन्म की पूर्व भूमिका तिसरा आरा का एक पलयोपम का आठवा भाग बाकी रहा तब एक युगलीक का जन्म हुआ युवा होते वो पति पत्नी बन गये यह युगल जा रहा था तब एक श्वेत वर्ण चार दंत वाला हाथी सामने आया और पूर्व भव के सबंध से हाथी ने पुरुष को सुढ से उठाकर अपने ऊपर बैठा दिया यह देख सब युगलीको ने ऊसको भाग्यशाली मान विमल वाहन नाम रख ऊसकी आज्ञा मानने लगे विमल वाहन ने युगलीक को दंड देने के लिये हकार निति चालु कि उसका आयुष्य पूर्ण होते उसके पुत्र चक्षुष्मा कुलकर बने उसके आयुष्य पूर्ण होते यशस्वी कुलकर बने हकार निति के साथ उसने मकार निति चालू की बाद मे अभिचंद्र और इसके बाद प्रेसेनजित कुलकर बने ऊसने हकार मकार निति के साथ ध्धिकार निति चालु कि इसका आयुष्य पूर्ण होने के छे महिना पहले नाभी और मरूदेवा युगलीक को जन्म दिया ऊसकी काया 525 धनुष की थी तिसरा आरा पूर्ण होने मे 84 पूर्व और 89 पख्वाडीया बाकी रहा तब नाभि और मरूदेवा का छे महिना आयुष्य बाकी रहा तब माता मरूदेवा ने जगत के अंधकार को दूर करने वाले प्रभू को जन्म दिया
आदिनाथ प्रभू च्यवन कल्याण मंद मंद पवन लहरा रहा है सब जिवो सुख शांति की गहरी नींद में सो रहे है तब नाभि कुलकर की रानी मर ने महा कल्याण कारी चौदह स्वप्न को मुख से ऊदर मे जाते देखा तब सर्वे लोक को शांति और सुख के दाता ऋषभदेव प्रभू का स्वार्थ सिध्द विमान से च्यवन हुआ ऊठकर माता नाभि नरेश के पास जाकर स्वप्न का फल पुछा नाभि राजा बोले देवी आप सुदर पुत्र को जन्म देगे और वो कुलकर बनेगा तब इद्र का सिहासन कंपायमान हुआ ऊसने प्रभू का च्यवन देखा और सत्य हकीकत बताने के लिए माता के पास आकर प्रणाम कर बोले हे त्रिभुवन पूजय माता आपने देखे स्वप्न का यह अर्थ है कि आप मंगलकारी धर्म सारथी बलवंत शूरवीर जिवो को पाप से मुक्ति देनार देवो मे भी पूजय गुणो के भंडार तेजस्वी चौद लोक के स्वामी की माता बनोगे एसी तरह स्वप्न फल।कह इद्र अपने स्थान गये यह सुन मरूदेवा माता अति प्रसन्न हुए और गर्भ का जतन वहन करने लगे
प्रभू की माता को आये चौदह स्वप्न का फल इद्र महाराज ने कहा १ वृषभ का फल मोह मे डुबे को धर्म रूपी रथ से ऊध्धार करने वाला आप पुत्र को प्राप्त करेंगे २ हाथी विपुल बल वाला होगा ३ सिह सिह जैसा निर्भय धीर शूरवीर प्रराक्रमि होगा ४ लक्ष्मी जी तिन लोक के साम्राज्य के स्वामी होगा ५ फुल की माला ऊसकी आज्ञा को सर्व जिवो शिरोमान्य करेंगे ६ चंद्र पूनम के चंद जैसे ऊसका दर्शन सौम्य शीतल आनंद वर्धक होगा ७ सूर्य मिथ्यात्व रूप अंधेरे को नाश कर ज्ञान का प्रकाश फेलायेगा ८ ध्वजा धर्म धजा वाला होगा ९ पूर्ण कुभ सर्वे रिध्धि सिध्दि वाले लोगे १० पद्म सरोवर पाप रूप ताप दुर करने वाले होगा ११ रत्नाकर समुद्र जैसे गंभीर होगा १२ देव विमान वैमानिक देवो में पूजनिय होगा १३ रत्न का ढग राशी गुण के भंडार होगा १४ धूर्मरहित अग्नि दोष रहित महा तेजस्वी पुत्र प्राप्त करोगे यह स्वप्न फल कह माता को प्रणाम कर इद्र अपने स्थान गया
१.अधोलोक से आई आठ दिक् कुमरी ने
भगवान और माता को वंदन कर बोली माता हम से भय मत पामना
२. इशान कोण से आई आठ ने पूर्व दिशा में एक हजार स्थभ वाला सूतिका गृह बनाकर चारे ओर एक योजन तक भूमि सर्वत नामक वायु से कंकर कंटक रहित बनाकर प्रभू के सन्मुख गीत गाने लगी
३. ऊध्वरवलोक से आयी आठ ने सुगंधित जल बरसा कर पंच वर्ण पुष्पो से एक योजन भूमि पर सजाकर गीत गाने लगी
४. पूर्व रूचक से पपरिवार सहित आठ दर्पण लेकर पूर्व की ओर खडी रही
५. पश्चिम से आइस आठ कलश लेकर पश्चिम की ओर खडी रही
६. उत्तर रूचक से आइ आठ चामर लेकर ऊतर मे खडी लही
७. पश्चिम से आइ आठ पंखा लेकर खडी लही
८. विदिशा की चार दीपक लेकर इशान कोण मे खडी रही
९. मध्य रेचक से आइ चार ने प्रभू की नाभीनाल को छेद खाड मे डाल ऊसको रत्न से भर दिया
दिक् कुमरी
सूचि कर्म
छप्पन दिक् कुमरी अपने सह परिवार आकर प्रभू और माता को वंदन कर अपनी दिशा में खडी रही
मध्य रूचक की ने नाभीनाल को छेडी खाड मे ररत्न से भर ऊपर दूर्वा से पीठीका बनाइ
बाद में पूर्व दक्षिण उत्तर दिशा में कदलि गृह बनाकर प्रभू को हाथ में लेकर माता और प्रभू को दक्षिण दिशा के कदलिगृह मे सिहासन पर बैठाकर लक्षपाक तेल से मालिश किया
बाद में पूर्व के कदलिगृह में लेगये वहा स्नान करवाके तेल विलेपन कर वस्त्र और आभूषण पहनाये
बाद में ऊतर के कदलिगृह में लाकर अभियोगिक देवो से लिये गये लधु हिमवंत पर्वत से लाये दो चंदन काष्ठसे अग्नि जलाकर होम किया
और ऊसकी राख की रक्षा पोटलि बनाकर प्रभू और माता को बांधि
आर्शिवाद देते बोले आप मेरू सूर्य चंद तक आयुष्य मान हो
बाद पाषाण के दो गोला बनाकर आस्फालन किया
बाद प्रभू और माता को वंदन कर गीत गाते हुए सह परिवार अपने स्थान गये
प्रभू जन्मोत्सव मनाने के लिए सब देवो मेरूशीखर ओर चल पडे
सौधर्म इद्र की आज्ञा से पालक नामक देवो ने एक लाख योजन विस्तार वाला पांच सो योजन ऊचा कला कारिगरी से देदैपम्यान पालक नामक विमान बनाया
इसमे आठ पटरानी और सेनाधिपति सामानिक जैसे करोडो देवो के साथ सौधर्म इद्र बेठ जंबुद्रीप की ओर चल पडे
यह विमान नंदीश्वर द्रीप आते ही संकोच दिया
बाद मरूदेवा माता के पास आकर नमन कर प्रभू जन्मोत्सव करने की रजा मागी
माता को अवस्वापी नी निद्रा मे डाल इद्र महाराज ने प्रभू ऋषभदेव को गोद में लिया
और माता के पास प्रभू के प्रतिबिंब स्थापित किया
और ऊच भावना से भक्ती करने के लिए पांच रूप कर
एक रूप से प्रभू को ग्रहण किया
दो रूप से चामर विझने लगे
एक रूप से व्रज धारण किया
और एक रूप से प्रभू के ऊपर छत्र धारण कर
मेरूशीखर की ओर चले
प्रभु अभिषेक
मेरू पर्वत के पाडुक वन मे चूलिका की चारे और रही शीला में से दक्षिण की ओर रही शिला पर सौधर्म इद्र प्रभू के गोद मे लेकर बेठे
प्रथम वडील होने की वजह से अच्युतेन्द ने प्रथम अभिषेक किया बाद में क्रमसर
प्राणतेन्द
सहसारेन्द
महाशुकेन्द
लांतकेन्द
भ्बहमलोकेन्द
महेंद्र
सनतेन्द्र
इशानेन्द
इत्यादि ने अभिषेक किया
कुल एक करोड साठ लाख कलश थी प्रभू को अभिषेक किया
बाद सौधर्म इद्र ने माता के पास जाकर प्रभू को स्थापित किया
और पेर के अंगुठे में अमृत का संचार कर अंगुठो प्रभू के मुख मे दिया
प्रभू को खेलने के लिए धूधरो और बोल रख कर वह अपने स्थान पर गये
मेरू पर्वत
इद्र और देव देविया प्रभू जी का अभिषेक करते हैं यह मेरु पर्वत
एक योजन ऊचा है
सपाटी दस हजार योजन पहोडाइ है
एक हजार योजन भूमि में है
तलेटी का नाम भद्रशाल वन
बाद में पाचसो योजन नंदन वन
बाद ६२५०० योजन सोमनसवन वन
बाद में ३६००० योजन पांडुक वन है
ऊससे बारह योजन की चुलिका है
पाडुक वन मे चारे ओर स्फटिक पथ्थर की शीला है
जिस दिशा में प्रभू का जन्म होते हैं ऊसतरफ की स्फटिक की शिला पर सिहासन होता है
ऊस शिला पर सौधर्म इद्र प्रभू को गोद में लेकर बेठते है
और दुसरे ६४ इद्र और देव देविया खडे होते है
सबेरे माता मरूदेवा ने नाभी कुलकर को देवो आकर प्रभू का अभिषेक करते देखा है एसा कहा
यह सुनकर वो आनंदित हुआ
सब प्रभू जन्म होता है तब उसकी जंधा पे चिन्ह होता है वो प्रभू का लंछन होता है
इस तरह ऋषभदेव प्रभू के जंधा पर वृषभ का लाछन था इसलिए नाम रखा ऋषभ और उसके साथ जन्मि बेटी का नाम रखा सुमंगला
जब प्रभु एक बरस के हुए तब वंश की स्थापना करने के लिए
सौधर्म इद्र स्वयं शेरडी लेकर वहा गए
तब नाभि राजा की गोद में बेठे प्रभू ने अवधि ज्ञान से इद्र की भावना पहचान कर शेलडी लेने के लिए अपना हाथ लंबाया
तब इद्र महाराज ने प्रभू के हाथ में शेलडी दी
और इक्षु ग्रहणकी इसलिये इक्ष्वाशू वंश की स्थापना कर इद्र देवलोक में गए
जब प्रभु जन्म लेते हैं तब उन्हों को चार अतिशय होता है इस तरह ऋषभदेव प्रभू का
शरीर पसीना मेल और रोग रहित सुगंधित और सुदर था
शरीर का मांस रक्त वि गाय के दूध जैसा ऊजवल और बिना दुर्गध वाला था
ऊससा आहार पानि सामान्य जिव नही देख सकते
प्रभू का श्वासो श्वास कमल के फूल सम सुगंधित होता था
दुसरे तेइस तिर्थ कर बडे होते अन का भोजन करते हैं लेकिन
ऋषभदेव प्रभू के लिए देवो उतर कुरू क्षेत्र से कल्पवृक्ष का फल और क्षीरसागर का जल लाते थे
तिर्थ कर वंदना
बिस विहरमान भः को नीचे दी गई समानता होती है
च्यवन अषाढ विद 5
जन्म चैत्र विद10
जन्म नक्षत्र ऊतराषाढा
जन्म राशि धन
अवगाहना पांचसो धनुष
वर्ण कंचन
गृहस्थावस्था 83 लाख पूर्व
दिक्षा कल्याणक फागुन सुद त्रिज
दिक्षा वृक्ष अशोक
छह्भस्थ 1000वरस
केवल चैत्र सुद13
गणधर 84
केवल ज्ञानी 10लाख
साधु 100 करोड
साध्वी 100 करोड
श्वावक 900 करोड
श्वाविका 900 करोड
चारित्र् पर्याय एक लाख पूर्व
आयुष्य 84 लाख पूर्व
निर्वाण श्वावण सुद 3
अच्छेरू
युगलीक काल में युगलीक नारी अपने आयुष्य छे महिना बाकी रहते
बालक बालिका को जन्म देते
युगलीक काल पूर्ण होने वाला था और
अर्थ काम मोक्ष और पुरूषार्थ का समय आनेवाले थे तब
एक युगलीक खेलते खेलते ताड के वृक्ष के नीचे पहुंचा तब उसका फल बालक के सर पर गिरा और बालक का मृत्यु हुआ
इस तरह पहली बार अकाल मृत्यु हुआ
पहले दोनों का साथ में मृत्यु होता था और बडे पक्षी उसको चांच मे उठाकर क्षीरसागर में डाल देते थे
अब ऐसा नहीं हुआ बालक का शरीर वहां पडा रहा और बालिका अकेली हो गई
ऊसको मा बाप ने स॔भेला और सुनंदा नाम रखा
आयुष्य पूर्ण होते मा बाप का मृत्यु हुआ
तब अकेली सुनंदा जंगल में धुमने लगी
ऊस युवति को लेकर युगलीक नाभि राजा को सोपि
तब नाभि राजा ने यह ऋषभ की पत्नी हो कह ऊसका स्वीकार किया
और सुनंदा और सुमंगला का विवाह ऋषभ के करने की तैयारी की
इद्र महाराज और देव देविया की हाजरि मे ऊसका विवाह हुआ
लग्न की सब तैयारी देवो ने की
भोगवालि कर्म भोगते सर्वाथसिध विमान से बाहु और पीठ मुनि सुनंदा की कुक्षी में पधारे और सुबाहु और महापीठ मुनि देव लोक से सुमंगला की कुक्षी में पधारे
गर्भकाल पूर्ण होते सुमंगला ने भरत और ब्राह्मी को और सुनंदा ने बाहुबली और सुदरी को जजन्म दिया
सुमंगला ने दुसरे युगलीक रूरू98 पुत्र को जन्म दिया
इस तरह ऋषभदेव प्रभू को 100 पुत्र और 2 पुत्री हुई
ऋषभ चरण अंगूठे दायक भव जल अंत
विषम काल आ गया युगलीकोने नाभि राजा के पास राजा की मांग की
राजा बोले शुध्द जल ले आओ ऋषभ का अभिषेक कर ऊसको राजा बनाये
युगलीको खुश हो जल लेने चले
रास्ते में कोई ऋषभदेव का जयकार गुज उठा
अनेक गीत गा रहे हैं
तो अनेक लोग नाच रहे हैं
अनेक वाजित्र बजा रहे हैं तो ढोल बजा रहे हैं
एसी तरह सब नदि किनारे पहुंचे सब स्नान कर शुध्द हुए
वृध्दो ने वृक्ष का पान लेकर सपुट याने कटोरा बनाके ऊसमे जल भरकर आये थे इस तरह नाचते गाते राज दरबार पहुंचे
यहां मुहरत आ जाने की वजह से इद्र ने ऋषभ को वस्त्र अलंकार पहना कर शिर पर राज मुगट पहनादिया था
यह देख युगलीको निराश हुए तब नाभि राजा के आदेश से युगलीको ने हमारा जिवन तुम्हारे चलण मे समर्पित करते हे कह ऋषभ देव के जमणे अंगुठे पर जल अभिषेक कर राजा धोषित किया ।

