उत्तम त्याग पर पूज्य गुरुदेव अमित सागर जी महाराज के प्रवचन से कुछ अंश:-

संयम और तप द्वारा शरीर और मन को तपाने के पश्चात त्याग का स्थान आता है। तीर्थंकरो ने पहले संयम और तप द्वारा इन्द्रियो और इच्छाओ को वश मे किया, फिर उनका त्याग किया। दान द्रव्य से होता है और त्याग भाव से होता है। त्याग किया जाता है और दान दिया जाता है। दान उसे देना चाहिए जो दान के पात्र हो, और इसमे देने वाले का आग्रह भाव होना चाहिए। दान द्वारा देने वाले और लेने वाले दोनो का कल्याण होता है। धन का दो प्रकार से प्रयोग हो सकता है - भोग एवं दान। दान के लिए धन का उपयोग धन का कल्याण है। दान देने के पश्चात यदि संतोष के स्थान पर संक्लेश हो, तो वह सच्चा दान नही। त्याग के पश्चात यदि आनंद की अनुभूति न हो, तो वह त्याग नही।

उत्तम त्याग धर्म की जय ।

प्रज्ञाश्रमण बालयोगी गुरूवर अमित सागरजी महाराज को शत शत नमन ।