आचार्य भक्ति

ज्ञानोदय छन्द) 
सिद्ध बने शिव-शुद्ध बने जो जिन की थुति में निरत रहे। 
दावा-सम अति-कोप अनल को शान्त किये अति-विरत रहे। 
मनो-गुप्ति के वचन-गुप्ति के काय-गुप्ति के धारक हैं। 
जब जब बोलें सत्य बोलते भाव शुद्ध-शिव साधक हैं॥१॥ 
दिन दुगुणी औ रात चउगुणी मुनि पद महिमा बढ़ा रहे। 
जिन शासन के दीप्त दीप हो और उजाला दिला रहे। 
बद्ध-कर्म के गूढ़ मूल पर घात लगाते कुशल रहे। 
ऋद्धि सिद्धि परसिद्धि छोडक़र शिवसुख पाने मचल रहे॥ २॥ 
मूलगुणों की मणियों से है जिनकी शोभित देह रही। 
षड् द्रव्यों का निश्चय जिनको जिनमें कुछ संदेह नहीं। 
समयोचित आचरण करे हैं प्रमाद के जो शोषक हैं। 
समदर्शन से शुद्ध बने हैं निज गुण तोषक, पोषक हैं॥३॥ 
पर-दुख-कातर सदय हृदय जो मोह-विनाशक तप धारे। 
पंच-पाप से पूर्ण परे हैं पले पुण्य में जग प्यारे। 
जीव जन्तु से रहित थान में वास करें निज कथा करें। 
जिनके मन में आशा ना है दूर कुपथ से तथा चरे॥४॥ 
बड़े बड़े उपवासादिक से दण्डित ना बहुदण्डों से। 
सुडोल सुन्दर तन मन से हैं मुख मण्डल-कर-डण्डों से। 
जीत रहे दो - बीस परीषह किरिया-करने योग करे। 
सावधान संधान ध्यान से प्रमाद हरने योग्य हरे॥५॥ 
नियमों में हैं अचल मेरुगिरि कन्दर में असहाय रहे। 
विजितमना हैं जित-इन्द्रिय हैं जितनिद्रक जितकाय रहे। 
दुस्सह दुखदा दुर्गति - कारण लेश्याओं से दूर रहे। 
यथाजात हैं जिनके तन है जल्ल-मल्ल से पूर रहे॥ ६॥ 
उत्तम उत्तम भावों से जो भावित करते आतम को। 
राग लोभ मात्सर्य शाठ्य मद को तजते हैं अघतम को। 
नहीं किसी से तुलना जिनकी जिनका जीवन अतुल रहा। 
सिद्धासन मन जिनके, चलता आगम मन्थन विपुल रहा॥७॥ 
आर्तध्यान से रौद्रध्यान से पूर्णयत्न से विमुख रहे। 
कुगति मार्ग से दूर हुये हैं सुगति ओर गतिमान हुये। 
सात ऋद्धि रस गारव छोड़े पुण्यवान् गणमान्य हुये॥८॥ 
ग्रीष्म काल में गिरि पर तपते वर्षा में तरुतल रहते। 
शीतकाल आकाश तले रह व्यतीत करते अघ दहते। 
बहुजन हितकर चरित धारते पुण्य पुंज है अभय रहे। 
प्रभावना के हेतुभूत उन महाभाव के निलय रहे॥९॥ 
इस विध अगणित गुणगण से जो सहित रहे हितसाधक हैं। 
हे जिनवर! तव भक्तिभाव में लीन रहे गण धारक हैं। 
अपने दोनों कर-कमलों को अपने मस्तक पर धरके। 
उनके पद कमलों में नमता बार-बार झुक-झुक करके॥१०॥ 
कषायवश कटु-कर्म किये थे जन्म मरण से युक्त हुये। 
वीतरागमय आत्म-ध्यान से कर्म नष्ट कर मुक्त हुये। 
प्रणाम उनको भी करता हूँ अखण्ड अक्षय-धाम मिले। 
मात्र प्रायोजन यही रहा है सुचिर काल विश्राम मिले॥११॥ 

दोहा 
मुनिगण-नायक भक्ति का करके कायोत्सर्ग। 
आलोचन उसका करूँ! ले प्रभु तव संसर्ग॥ १२॥ 
पंचाचारों रत्नत्रय से शोभित हो आचार्य महा, 
शिवपथ चलते और चलाते औरों को भी आर्य महा। 
उपाध्याय उपदेश सदा दे चरित बोध का शिवपथ का। 
रत्नत्रय पालन में रत हो साधु सहारा जिनमत का॥ १३॥ 
भावभक्ति से चाव शक्ति से निर्मल कर कर निज मन को। 
वंदूँ पूजूँ अर्चन करलूँ नमन करूँ मैं गुरु गण को। 
कष्ट दूर हो कर्म चूर हो बोधिलाभ हो सद्गति हो। 
वीर-मरण हो जिनपद मुझको मिले सामने सन्मति ओ!॥१४॥