पञ्च परमेष्ठियों के मूल गुण, ऐसे याद रख सकते हैं :-
"अरहंता छैयाला(46), सिद्धा अट्ठेव(8), सूर छत्तीसा(36),
उवज्झाया पणवीसा(25), साहूणं होन्ति अड्वीसा(28) "
- आठों कर्मों का नाश हो जाने पर जो पूर्ण आत्म-सिद्धि प्राप्त कर लेते हैं, वो सिद्ध परमेष्ठी होते हैं !
-आठ कर्म नष्ट होने से उनमे आठ गुण प्रकट होते हैं ...
"समकित दर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना,
सूक्ष्म वीरजवान, निरावाध गुण सिद्ध के !!"
कर्म -------------------- गुण
१ - मोहनीय कर्म के नाश से - अनंत सुख गुण प्रगट हुआ
२ - दर्शनावरण कर्म के नाश से - अनंत दर्शन गुण प्रगट हुआ
३ - ज्ञानावरण कर्म के नाश से - अनंत ज्ञान गुण प्रगट हुआ
४ - अंतराय कर्म के नाश से - अनंत वीर्य गुण प्रगट हुआ
५ - नाम कर्म के नाश से - सूक्ष्मत्व गुण प्रगट हुआ
६ - गोत्र कर्म के नाश से - अगुरुलघु गुण प्रगट हुआ
७ - आयु कर्म के नाश से - अवगाहन गुण प्रगट हुआ
८ - वेदनीय कर्म के नाश से - अव्याबाध गुण प्रगट हुआ
अब इन्हे विस्तार में जानेंगे …
"समकित दर्शन ज्ञान, अगुरुलघु अवगाहना,
सूक्ष्म वीरजवान, निरावाध गुण सिद्ध के !!"
१ - अनंत सुख गुण --> मोहनीय कर्म के नाश होने से आत्मा में प्रकट होने वाले अनुपम अतीन्द्रिय (इंद्रियों कि सहायता के बिना आत्मा को प्राप्त) सुख, को अनत सुख कहते हैं !
२ - अनंत दर्शन गुण --> दर्शनावरणीय कर्म के नाश होने से आत्मा में यह गुण प्रगट होता है !
तीनो लोकों के तीनो कालों के सभी द्रव्यों का यथार्थ अवलोकन, सो आत्मा का अनंत दर्शन गुण है !
३ - अनंत ज्ञान गुण --> ज्ञानावरणीय कर्म के नाश होने से, भगवान् को तीनो लोकों के तीनो कालों के सभी पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो जाता है, यह आत्मा का अनंत ज्ञान गुण है !
४ - अनंत वीर्य गुण --> अंतराय कर्म के नाश हो जाने पर आत्मा में जो अनंत सामर्थ्य/बल प्रकट होता है, सो अनंत वीर्य गुण है !
५ - सूक्ष्मत्व गुण --> इंद्रियों से दिखायी न देना सूक्ष्मत्व गुण है, नाम कर्म के नाश होने से सूक्ष्मत्व(अमूर्तित्व) गुण प्रगट होता है !
६ - अगुरुलघु गुण --> जिस गुण के कारण छोटे-बड़े का भेद समाप्त हो जाता है, वह "अगुरुलघु गुण" है ! सिद्धशिला पर सभी सिद्ध समान हो जाते हैं,फिर चाहें वे अरिहंत केवली रहे हों, सामान्य या फिर मूक केवली आत्मा का यह गुण गोत्र कर्म के नाश से प्रगट होता है !
७ - अवगाहन गुण --> जिस गुण के कारण एक जीव में अनंत जीव समा जाते हैं, सो अवगाहन गुण है ! सिद्धशिला पर विराजमान एक सिद्ध में अनेक सिद्ध रहते हैं क्यूंकि आत्मा(सिद्ध) अमूर्त होने के कारण एक-दूसरे के रुकने में बाधक नहीं होती है !
आयु कर्म के नाश से आत्मा का यह गुण प्रगट होता है !
८ - अव्याबाध गुण --> वेदनीय कर्म के कारण आत्मा में कर्म जनित सुख-दुःख कि अनुभूति होती है, चौदहवें गुणस्थान के अंतिम समय में वेदनीय कर्म के पूर्ण रूप से नाश हो जाने पर, अव्याबाध गुण प्रगट होता है !
अव्याबाध (बाधा रहित) अनंत सुख का होना
--- ॐ नमः सिद्धेव्यः ---