साधु परमेष्ठीजी के अट्ठाइस (28) मूल गुण


प्र:- साधु होते कौन हैं ?

उ:- जिन्होंने, ये जान लिया है कि परम सुख तो मोक्ष में ही है और जिन्होंने अपने सच्चे स्वरुप को पाने के लिए, अपने घर-परिवार को, यार-दोस्तों को, पैसे-संपत्ति को, राग-द्वेष भावों को, सभी आरम्भ-परिग्रहों को यहाँ तक कि अपने वस्त्रों तक को त्याग दिया, और अपने मुलगुणों का विधिवत पालन कर करते हुए निरंतर मोक्ष-मार्ग पर अग्र्सर हैं, वो सिर्फ वो ही साधु हैं !!!

जो रत्नत्रय कि साधना शुद्ध रीति से करते हैं, वो ही साधु होते हैं !!!

"पञ्च महाव्रत पञ्च समिति, पञ्च इन्द्रिरोध

षट आवश्यक नियम गुण, अष्ठविशन्ति बोध"

साधु परमेष्ठी के 28 मूलगुण होते हैं :-

5 - महाव्रत,

5 - समिति,

5 - इन्द्रिय दमन,

6 - आवश्यक और,

7 - शेष गुण

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28 - साधु परमेष्ठी के गुण ...

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*** साधु परमेष्ठी के 28 मूलगुण पढ़ने के बाद हम परखें और जांचे कि जिन्हे हम मुनि मानकर पूज रहे हैं और मुनिभक्त बने घूम रहे हैं, क्या वे असल में मुनि हैं ? क्यूंकि शास्त्रों में स्पष्ट लिखा है कि जो अपने मुलगुणो को नहीं पाल रहा, वो साधु नहीं है, भेषधारी है ... उसे परमेष्ठी भगवान् कि श्रेणी में नहीं रख सकते, यह सर्वथा जिनागम असम्मत है ...

*** पांच महाव्रत ***

हिंसा अनृत तस्करी, अबह्म परिग्रह पाय !

रोकें मन वच काय से, पञ्च महाव्रत थाय !!

1 - अहिंसा महाव्रत :- त्रस और स्थावर जीवों कि हिंसा का त्याग !

2 - सत्य महाव्रत :- झूठ बोलने का त्याग !

3 - अचौर्य महाव्रत :- किसी भी यहाँ तक कि जल, मिट्टी भी बिना दिये न लेना !

4 - बह्मचर्य महाव्रत :- स्त्री मात्र के शरीर स्पर्श का त्याग !

5 - परिग्रह त्याग महाव्रत :- 14 प्रकार अंतरंग और 10 प्रकार के बहिरंग परिग्रह का त्याग !

*** पांच समिति ***

"ईर्या भाषा एषणा, पुनि क्षेपण आदान !

प्रतिष्ठापना जुत क्रिया, पाँचों समिति विधान !!"

1 - ईर्या समिति :- चार हाथ आगे कि भूमि को देख कर चलना, ताकि जीव हिंसा न हो !

2 - भाषा समिति :- सर्व प्राणियों के हितकारी, मिष्ठ, प्रिय, सत्य वचन बोलना !

3 - एषणा समिति :- 46 दोष, 32 अंतराय और 14 मॉल दोषों को टालकर कुलीन श्रावक के घर आहार ग्रहण करना !

4 - आदान निक्षेपण :- शास्त्र, पिच्छी, कमण्डलु देखभाल कर उठाना !

5 - प्रतिष्ठापना या उत्सर्ग :- मल-मूत्र-थूक आदि का निर्जन स्थान पर त्याग करना !

*** पञ्च इन्द्रियदमन ***

"सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत को रोध

षट आवशि मंजन तजन, शयन भूमि को शोध"

हम जानते हैं कि इंद्रियां पांच होती हैं, उनके इंद्रियों विषयों में राग-द्वेष रहित हो जाना, सो इन्द्रिय दमन है !!!

याने,

जैसा भी स्पर्श किया, खाया-पीया, देखा, सुना इंद्रियों से जो कुछ भी भोग उस सब के प्रति सामान भाव, न कुछ भी अच्छा है न बुरा है, सो इन्द्रिय दमन है ...

1 - स्पर्शन इन्द्रिय रोध :- चेतन पदार्थ, जैसे पुत्र-पुत्री,स्त्री और अचेतन पदार्थ आदि में स्पर्शन इंद्रियों के विषयों जैसे, ये रूखा है, ये कोमल है, ठंडा-गरम है, रुपी राग-द्वेष न करना सो स्पर्शन इन्द्रिय का रोध है !!!

2 - रसना इन्द्रिय रोध :- 4 प्रकार आहार, 6 प्रकार रस रूप इष्ट अनिष्ट आहार में राग-द्वेष न करना !

3 - घ्राणेन्द्रिय रोध :- सुगन्धित व दुर्गन्धित पदार्थों में राग-द्वेष न करना !

4 - चक्षु इन्द्रिय रोध :- दर्शनीय तथा अदर्शनीय पदार्थों में राग-द्वेष न करना !

5 - कर्णेन्द्रिय रोध :- अच्छा सुन कर प्रशंसा और निंदा आदि के शब्द सुनकर राग-द्वेष न करना !

और,

षडावश्यक मूलगुण वही आचार्य परमेष्ठी वाले ...

सामायिक, वंदना, स्तुति, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग ...

मुनिराज इनका भी दृढ़ता से पालन करते हैं ..

*** 7 - शेष गुणों ***

"सपरस रसना नासिका, नयन श्रोत को रोध

षट आवशि मंजन तजन, शयन भूमि को शोध

वस्त्रत्याग कचलुँच अरु, लघु भोजन इक बार

दंतन मुख में ना करें, ठाढें लेहिं आहार"

१- मुनिराज कभी स्नान नहीं करते, यदि कभी अशुचि पदार्थ का स्पर्श हो जाए तो एकांत स्थान पर निश्चल खड़े होकर कमंडल का पानी सर पर से डाल लेते हैं !

२- भूमि पर सोना, मुनिराज पलंग या मखमली शैय्या पर नहीं सोते, ज़मीन,शिला,तख्ती इत्यादि पर एक करवट से सोते हैं !

३- वस्त्रों का त्याग रहता है !

४- केशलोंच- सिर,दाढ़ी,मूँछ के बालों को हाथ से उखाड़ते हैं !

५- दिन में एक बार और थोडा ही भोजन करते हैं !

६- दातून नहीं करते !

७- खड़े होकर भोजन करना !

इन 28 मुलगुणों के साथ मुनिराज 22 परीषहजयी भी होते हैं !

ये साधु परमेष्ठी के 28 मूलगुण समाप्त हुए !

और इस प्रकार हमने पञ्च-परमेष्ठी भगवान् के 143 मुलगुणों को जाना ...
--- णमो लोए सव्व साहूणं ---